शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

वसंती हवा शब्द सफ़ेद पाखी और पीली तितलियाँ


शब्दों के सफ़ेद पाखियों की कतारें
जाने कहाँ से चली आती हैं 
मन के अरण्य में
जहाँ कोई आतुरता नहीं
किसी का इंतज़ार नहीं।
एकाकीपन के घनीभूत क्षणों में
ये सफ़ेद पाखी स्वत: तब्दील हो जाते हैं
पीली तितलियों में
जो पता नहीं किस गंध का अनुमान करती
तिरने लगती हैं वातावरण में।
शब्दों का यह इन्द्रजाल
केवल देखा जा सकता है
या अनुभव किया जा सकता है
बिना किसी अर्थवत्ता के
इन अराजक शब्दों को
कोई अर्थवान बनाए भी तो कैसे?
पाखियों को पकड़ पाने की कला
बहेलिए जानते तो हैं
लेकिन पाखियों को
परतंत्र बनाने की जुगत में
वे उन्हें मार ही डालते हैं वस्तुत:
कभी किसी ने परतंत्र पाखी को
उन्मुक्त स्वर में गाते देखा है भला?
अलबत्ता तितलियों को तो
नादान बच्चे भी पकड़ लिया करते हैं
पर तितलियाँ तो
तितलियाँ ही होती हैं अन्तत:।
उन्हें किसी ने स्पर्श भर किया
और उनके रंग हुए तिरोहित
पंख क्षत विक्षत।
एक बार पकड़ी गई तितली
फिर कभी उड़ पाई है क्या?
एक न एक दिन
शब्दों के ये सफ़ेद पाखी
अवश्य गाएँगे एक ऐसा गीत
जिससे आलोकित हो उठेगा
मन के अरण्य में बिखरा
घटाटोप अंधकार
अपनी सम्पूर्ण हरीतिमा के साथ।
शब्दों के पाखियों को
मन के बियाबान के अनंत में
यों ही उड़ान भरने दो
पीली तितलियों का यह खेल
बस देखते रहो
जब तक देख सकते हो
निशब्द निस्तब्ध।

बुधवार, 13 दिसंबर 2017

चश्मा ,चाभी ,पेन और मेरा वजूद


मैंने अपने चश्मे को डोरी से बांध
लटका लिया है गले में
जैसे आदमखोर कबीले के सरदार
आखेट किये नरमुंड लटकाते होंगे
चश्मा जिसे मैं प्यार से ऐनक कहता हूँ
मेरे बचे रहने की रही सही फर्जी उम्मीद भर है
जरूरी चीजों को करीब बनाये रखने का
यही एकमात्र आदिम तरीका है
चश्मा तो बंध गया
अब बंद कमरे की इकलौती चाभी
जेब में किसी हठीली चिड़िया सी फुदकती है
दरवाजे पर जड़े जंग खाए ताले की ओर
कदम बढ़ाता हूँ तो वह दुबक जाती है
जेब के किसी अबूझे अंधकूप में
तब ताला मेरी हताशा को मुंह चिढाता है
चाभी मेरी हडबडी से निकल
ठन्न से आ गिरती है धरती पर.
पहले यही हाल पेन का था
वह तो जादूगर था ,बड़ा छलिया
वह तब कभी न मिला जब उसकी जरूरत पड़ी
वह कान की मुंडेर पर बैठा रहता
मैं लिखने लायक शब्द स्मृति में धकेल
जब झुंझलाहट में सिर झुकाता तो मिल जाता.
चश्मा चाभी और पेन को सम्भालने में
वक्त मंथर गति से गुजरता जाता है
कूटशब्दों से अंटी बायोमेट्रिक शिनाख्त के आगे
मेरा वजूद दो कौड़ी का है
स्मृति में लगी खूंटियों पर
टंगे हैं हाईटेक डरावने बिजूका
उनके समीप जाने से जी घबराता है.

मोची राम

छुट्टियों में घर आए बेटे

बेटे छुट्टियाँ पर घर आ रहे हैं ठण्ड उतरा रही है माहौल में   धीरे-धीरे खबर है , अभयारण्य में शुरू हो चली है लाल गर्दन वाले बगुलों की आम...