बरसों बरस की डेली पैसेंजरी के दौरान रची गई अनगढ़ कविताएँ . ये कवितायें कम मन में दर्ज हो गई इबारत अधिक हैं . जैसे कोई बिगड़ैल बच्चा दीवार पर कुछ भी लिख डाले .
शनिवार, 13 अक्तूबर 2018
रविवार, 23 सितंबर 2018
एक बार .........
एक बार बस एक ही बार
किसी दिन किसी लम्हे
मुझे लगा
कि शायद यह प्यार है
कान के नज़दीक की
शिरायें
हौले से कम्पित हुईं
कनपटी पर ताप बढ़ा कि
भभक उठा पूरा वजूद
यह आवेग जैसा
कुछ था बेशक
मुझे यकीन नहीं होता
यकीनन.
आदिम प्यार के किस्से लोक में प्रचलित हैं
उनसे इतर मेरे पास
दुनियावी पैमाने से मापने के
इनेगिने कदीमी उपकरण
हैं
जाड़ों में धूप
की लकीर जब
जर्जर हुए भुतही
इमारत के कंगूरे पर जा टिके
तो मानना पड़ता है कि
अब अंधेरा नापने को है समूचा दिन.
प्यार सिर्फ इतना ही
है बस इतना-सा
लगे कि मन के भीतर
कुछ प्रत्याशित घटा
कोई तेज रफ्तार
रेलगाड़ी गुजरे और
पटरियों के नज़दीक के
खेतों में उगी
गेहूं की ताजातरीन
बालियों में हरकत हो
हवा में घुल जाए गेहुँआ
दूध की अनचीन्ही गमक.
मैंने बार –बार खुद
से पूछा
क्या यही है
प्यार की गीली जमीन से होकर गुजर जाना
जिस पर ठहरे उदास पदचिन्हों
को
प्रेम कथाओं के
पन्नों में संरक्षित कर
हम सदियों से बेवजह मुग्ध
हुए जाते हैं
सदियाँ बीती मैं देह
की दहलीज के मुहाने खड़ा
न जाने कब से अनागत जवाब
की बाट जोहता हूँ.
शुक्रवार, 21 सितंबर 2018
उस दिन ......
उस दिन मैंने दवा रखने वाली
छोटी छोटी रंगीन डिब्बियों में
एक एक कर सुबह दोपहर शाम के हिसाब से
सोमवार से लेकर रविवार तक
जिंदा बने रहने की हिकमत को करीने से सजाया
फिर छत की ओर तेजी से घूमते पंखे की ओर देखा
सोचा चलो जिन्दगी में रची बसी अराजकता ज़रा कम हुई.
बहुत सोचने के बाद याद आया
जिन्हें मैं डिब्बियों के नाम से याद कर रहा
यह तो ऑर्गेनाइजर है
वक्त कितना बदल गया कि
पापा ,हैप्पी बर्थडे ...कहता बेटा
उपहार में ग्लूकोमीटर या ऐसा ही कोई सामान देता
एक न एक दिन लगभग तस्दीक कर देता है कि
दवाएं रासयनिक दया हैं
किसी की दुआओं से अधिक विश्वसनीय.
उस दिन
टाइम मशीन में बैठ कर
बीते हुए समय में वापस लौट जाने की गाथा का
दुखांत पटाक्षेप हुआ मानो
विज्ञानं ने अपनी तार्किकता से
छोटी छोटी भावुक आत्मीयता से भरी
मरियल आस छीन ही ली
इसके बाद बताया कि
जीवन के निविड़ अंधकार में
किसी किस्म की उम्मीद बाँधने से नहीं
बिना सीली हुई माचिस में रखी
शुष्क तीली की सम्यक रगड़ से काम चलता है.
उस दिन के बाद
दवाओं को खाने का वक्त सदा याद रहा
पर मैं भुलाने लगा
स्मृति के गोपन कोनों में सहेज कर रखे
दैहिक उन्माद के प्रेमिल लम्हे
अपनत्व भरे कालातीत पल
और उत्तेजनापूर्ण यथार्थ का गल्प.
उस दिन यकायक जाने क्या हुआ
मेरे भीतर का कापुरुष विजयी भाव के साथ
मेरी लापरवाह निजता को .
बेदर्दी से रौंदता हुआ
चला गया समय के परले पार.
सोमवार, 17 सितंबर 2018
चंद छोटी -छोटी कविताएँ
कोई कहीं
घुमाती होगी सलाई
रंगीन ऊन के गोले
बेआवाज़ खुलते होंगे
मरियल धूप में बैठी
वह बुनती होगी
एक नया इंद्रधनुष
घुमाती होगी सलाई
रंगीन ऊन के गोले
बेआवाज़ खुलते होंगे
मरियल धूप में बैठी
वह बुनती होगी
एक नया इंद्रधनुष
यह लड़कियां
कितनी आसानी से उचक कर
पलकों पर टांग लेती हैं
सतरंगे ख्वाब।
कितनी आसानी से उचक कर
पलकों पर टांग लेती हैं
सतरंगे ख्वाब।
कविता -2
मंगलवार, 4 सितंबर 2018
उसने याद किया ,,,,,
उसने याद किया
हिचकी आईं ,एक बाद एक
और मैं चल दिया उसे खोजने
मेरे पास था उसका डाक का
आधा अधूरा पता बिना पिनकोड वाला .
हिचकी आईं ,एक बाद एक
और मैं चल दिया उसे खोजने
मेरे पास था उसका डाक का
आधा अधूरा पता बिना पिनकोड वाला .
कुछ ही देर में
देह हो गई पसीने से तरबतर
लेकिन वह जगह नहीं मिली
जिसके आसपास वह मिल जाता बाट जोहता
उसके जैसे लोग अपने पते पर नहीं मिलते .
देह हो गई पसीने से तरबतर
लेकिन वह जगह नहीं मिली
जिसके आसपास वह मिल जाता बाट जोहता
उसके जैसे लोग अपने पते पर नहीं मिलते .
पते में नहीं लिखा था
फिर भी मुझे मालूम था
वह रहता है लद्दूमल की सराय के पास
जिसके चबूतरे पर बैठ कल्लू हलवाई का नौकर
बूंदी के लड्डू छानता है.
फिर भी मुझे मालूम था
वह रहता है लद्दूमल की सराय के पास
जिसके चबूतरे पर बैठ कल्लू हलवाई का नौकर
बूंदी के लड्डू छानता है.
बहुत खोजा सबसे पूछा
सराय और उसके चबूतरे का कोई
सुराग तक नहीं मिला
लद्दूमल ,कल्लू और उसका नौकर कहाँ गए
किसी को इसका कुछ नहीं पता.
सराय और उसके चबूतरे का कोई
सुराग तक नहीं मिला
लद्दूमल ,कल्लू और उसका नौकर कहाँ गए
किसी को इसका कुछ नहीं पता.
उसके घर से कुछ दूरी पर था
पाकड़ का एक छायादार पेड़
जहाँ बैठ वह कभी कभी लिखता था
उसे कवि होने की गलतफहमी थी
पर इससे किसी का पता मुकम्मल नहीं होता .
.
पाकड़ का एक छायादार पेड़
जहाँ बैठ वह कभी कभी लिखता था
उसे कवि होने की गलतफहमी थी
पर इससे किसी का पता मुकम्मल नहीं होता .
.
छोटे शहरों में नाम भर से मिल जाती है
किसी के होने की पूरी जानकारी
मैं तो इसी मुगालते में था
नहीं जानता था कि बीतते समय के साथ
छोटे शहर बड़े होकर अपने बाशिंदों को भुला जाते हैं.
किसी के होने की पूरी जानकारी
मैं तो इसी मुगालते में था
नहीं जानता था कि बीतते समय के साथ
छोटे शहर बड़े होकर अपने बाशिंदों को भुला जाते हैं.
मैं उसे तलाशता रहा पूरी शिद्दत के साथ
फिर लौट आया झक्क मार कर
डाल आया लैटर बॉक्स में चिट्ठी
उसका अस्फुट पता लिख कर
जैसे घटाटोप अँधेरे में जला आये कोई दिया .
फिर लौट आया झक्क मार कर
डाल आया लैटर बॉक्स में चिट्ठी
उसका अस्फुट पता लिख कर
जैसे घटाटोप अँधेरे में जला आये कोई दिया .
इसके बाद न उसकी कोई खबर मिली
न याद वाली हिचकी आई
बस लौट आया एक दिन भेजी चिट्ठी का लिफाफा
लिखा था जिस पर
दिए गए पते पर उगी हैं बेतरतीब झाडियाँ
जिन पर रहता है गिलहरियों का कुनबा.
न याद वाली हिचकी आई
बस लौट आया एक दिन भेजी चिट्ठी का लिफाफा
लिखा था जिस पर
दिए गए पते पर उगी हैं बेतरतीब झाडियाँ
जिन पर रहता है गिलहरियों का कुनबा.
एक लावारिस दरख्त पर अपनी रानी की खातिर
दिन-रात शहद ढोहती कमेरी मधुमक्खियां
नेवले टहलते हैं बेख़ौफ़ ,सांप को तलाशते
चिड़िया लौट लौट आती हैं घोंसले में
अपने बच्चों की भूख की खातिर.
यह चिट्ठी किसे दें
उसकी शिनाख्त ज़रा साफ़ साफ़ लिखें !
बुधवार, 29 अगस्त 2018
बीतती हुई जिन्दगी
बीतते जाते हैं दिन बड़े सलीके से
नींद को टेरते गुजरती है
युगों लम्बी तमाम रातें
आदिम घड़ियां बेवजह टिकटकाती हैं
समय का पेंडुलम डोलता है.
लगभग बेवजह.
कहीं पहुँचने की जल्दबाजी नहीं
न किसी को आँख भर देख लेने का दीवानापन
सब कुछ चलता तयशुदा तरीके से
उबासी भी ज़रा एहतियात से लेते
ताज़ा जिल्दबंधी किताब की तरह
यादों के सफ़े दबे हैं वजनी वक्त के नीचे.
पलक झपकते सपने आते –जाते
मन के भीतर कोई रंग न उतरा
किसी को बेसाख्ता पुकारते हुए जी कतरा जाए
अतीत के अरण्य में
भूली बिसरी यादों के सूखे पत्ते तक न खडखडाये
आदमी रोबोट हुआ मानो.
बोसीदा दीवार पर टंगा कैलेंडर थरथराता है
कुछ है जो तारीख की मुट्ठी से
फ़िसल रहा है आहिस्ता आहिस्ता
उम्र की रेत चुपचाप उड़ती है
किसी बिंदास हसीना के दुपट्टे की तरह.
रविवार, 26 अगस्त 2018
कवि इस तरह क्यों हंसा
वह गहरी उदासी के
बीच
अनायास निहायत
बेहूदा तरीके से हंस पड़ा
फिर देर तक सोचता
रहा
क्या किसी अनहोनी के
फर्जी अंदेशे पर हंसा या
साइकिल चलाना सीखती बच्ची
के
बेसख्ता पक्की सडक पर गिर पड़ने पर हंसा
बेसख्ता पक्की सडक पर गिर पड़ने पर हंसा
हंसा इसलिए कि इसकी
कोई वजह न थी
एक बात तय है कि
किसी षड्यंत्र के
तहत उसने यह न किया होगा.
कवि के लिए हंसना या
रोना कभी सहज नहीं होता
उदास बने रहना ऐसा
ही है
जैसे कागज पर
अक्षरों जैसे चील कौए उड़ाने से पहले
पेन्सिल की नोक को सलीके से
नोकदार बनाना
लिखने लायक रूपक को बटोर लेना
अनुमान है कि उसका हंसना
घनीभूत अवसाद में महज़ बुदबुदाना रहा होगा.
वैसे कायदा तो यह था
उसे हंसना ही था तो
भीतर ही भीतर चुपचाप
हंस लेता
जैसे अमूमन गम
गुस्से या गहन आनंद को
धीरे –धीरे अपने अंदर
घोलता हैं.
जैसे बिना ध्वनि का
इस्तेमाल किये
करता हैं
संवाद
मंथर गति से बहती
हवाओं से
फूल की सुगंध और रंग
से
परिंदों की परवाज़
से.
कवि होने का यह मतलब
नहीं
कुछ भी कर बैठें खुलेआम
लिखना लिखाना हो
मुफ़्त में यहाँ वहाँ से मिली डायरी के पन्नों पर लिखे
बेहतर यही कि मन ही मन करें यह फिजूल काम
समझ ले
बेवजह हंसी का फलक बड़ा धारदार होता है
इससे कौन कितना आहत हो उठे
यह बात ठीक से कोई नहीं जानता .
बुधवार, 22 अगस्त 2018
एक बार की बात
एक बार की बात है
एक बार की बात है
एक बार की बात है
एक बार की बात है
एक दरख़्त की डाल पर
लकड़हारे की कुल्हाड़ी
चली
परिंदों से छिने
उनके घरबार
बिना खिले फूल
मिट्टी में जा मिले
फलित सम्भावनाये नदारद हुई
हरियाली की सौगात
लिए
आती बादलों की कतार
लौट गयी उलटे पांव
एक बार की बात है
आदमी ने सीख ली
कद्दावर दरख्तों को
फर्नीचर में
बदलने की तकनीक
पेड़ों की जान ही सांसत में फंसी
अब कुर्सियों ही
कुर्सियां है चारो ओर
मेज पर रखे गुलदान
में सजते हैं
प्लास्टिक के
निर्गन्ध फूल।
एक बार की बात है
लकड़ी के व्यपारी ले
आये स्वचालित आरे
लकड़हारे काटने लगे लकड़ी
जंगल के जंगल गायब हुए
अब बयार तितली फूल
रंग सुगंध की बात कौन करे ।
एक बार की बात है
यह आजकल की वारदात
है
हरतरफ वनैली गन्ध फैली
हिंस्र आदमियत ने ओढ़
लिए
शातिर मुखौटे
अब वे बतियाते नहीं
गुर्राते हैं।
एक बार की बात है
देखते ही देखते
हरियाली रक्ताभ हुई
परिंदों के कण्ठ में
बसी
मधुरिम स्वर लहरी गुम हुई
चन्द मसखरे बचे हैं
अपनी ढपली पर बजाते
तरक्की के बेसुरे
राग।
एक बार की बात है
न कहने लायक कुछ बचा
न सुनने को उत्सुक
कोई रहा
यह रोजमर्रा की बात है.
यह रोजमर्रा की बात है.
शुक्रवार, 29 जून 2018
बच्चे खेलते हैं
बच्चे क्लाशिनोकोव से खेलते हैं
निकलते हैं मुंह से
तड़-तड़ ; गड़ -गड़ की आवाज़
खेल ही खेल में
वे धरती पर लोटपोट हुए जाते हैं
जिंदगी के पहले पहर में कर रहे हैं
मृत्यु का पूर्वाभ्यास .
खेलते हुए बच्चों के भीतर
रगों के दौड़ते लहू को
जल्द से जल्द उलीचने की आतुरता है
लड़ते हुए मर जाना
उनके लिए
रिंगा रिंगा रोज़ेस और
छुपम छुपाई से अधिक रोमांचक खिलवाड़ .
बच्चे जिसे समझते हैं खेल
वह खेल होकर भी दरअसल
खेल जैसा खेल है ही नहीं
अमन की उम्मीद और
रक्तरंजित धरती के संधिस्थल पर
अपरिहार्य युद्ध की आशंकाओं से भरी
एक खूंखार हिमाकत है.
बच्चे सिर्फ बारूद से खेलना जानते हैं
हथगोले हमारे अहद की फ़ुटबाल हैं
कटी हुई गर्दनें हैं शांति की रूपक
भुने हुए सफेद कबूतर
पसंददीदा पौष्टिक आहार
एटम बम को लिटिल बॉय कहते हुए
वे गदगद हुए जाते हैं .
बच्चे अब बेबात खिलखिलाते नहीं
गुर्राते हैं ,हिंसक षड़यंत्र रचते
खेलते हैं घात प्रतिघात से भरे खेल
झपटते हैं एक दूसरे की ओर
नैसर्गिक उमंग के साथ
बच्चे सीख गये हैं मारने और मरने की खिलंदड़ी.
मोहनजोदड़ो
महान सभ्यता की
दहलीज पर टहलते थे
करीब चालीस हज़ार
लोगों के सनातन सपने
जहाँ अब मोहनजोदड़ो
है -मुर्दों का टीला
जीवाश्म भंगुर
इतिहास के पुख्ता गवाह होते हैं.
वहाँ काला पड़ गया
गेंहू है तो
भूख और तृप्ति भी
होगी
कहीं गोपन स्थानों
पर
या फिर शायद खुल्लम
खुल्ला होता होगा
रोटी का खेल भी
सभ्यता थी तो यह सब
हुआ ही होगा.
वहाँ मिले तांबे और
काँसे के बर्तन,
मुहरें, चौपड़ की गोटियाँ,माप-तोल के पत्थर,
मिट्टी की बैलगाड़ी,
दो पाटन की चक्की, कंघी,
मिट्टी के कंगन और
पत्थर के औजार
और कुछ भुरभुराए
कंकाल
जीवन था तो यह तो होगा ही.
मोहनजोदड़ो में नहीं
मिला
किसी तितली के
रंगीन परों का सुराग
पंख तौलते पक्षी की
उड़ान का साक्ष्य
फूलों में बसी
सुगंध का कोई सुबूत
न ताबूत में सलीके
से रखी
किसी तूतनखामन की
बेशकीमती देह
अलबत्ता वहाँ
गुमशुदा आज के सिलसिले जरूर मिले.
वहां सपने बुनने
वाला न कोई करघा मिला
न कुम्हार का चाक
वक्त की रफ़्तार पर
ठहरा हुआ कोई राग
किसी कलाकार के
रंगों की पिटारी
मिला ताम्बे का वो
आईना
जिस पर कोई अक्स
कभी ठहरा ही नहीं.
मोहनजोदड़ो में रीते
हुए जलाशय मिले
नीचे की ओर उतरती सीढियां मिली
बोलता बतियाता बहता
पानी न मिला
अलबत्ता कहते हैं
वहाँ समय की सघन
गुफाओं में से
जवान मादाओं के
खिलखिलाने की आवाज़ आती है.
वहां रखे इतिहास के
पन्ने
जब तब उलटते हैं
तब हिलती हैं चालीस
हजार गर्दनें
हजारों साल बाद भी
कोई नहीं जानता
इनकी देह और दैहिक
कामनाओं का क्या हुआ
मोहनजोदड़ो में बहती
हैं धूलभरी गर्म हवाएं
अबूझ स्वरलिपि कोई
कोई गवैया अनवरत गाता हैं .
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
मोची राम
छुट्टियों में घर आए बेटे
बेटे छुट्टियाँ पर घर आ रहे हैं ठण्ड उतरा रही है माहौल में धीरे-धीरे खबर है , अभयारण्य में शुरू हो चली है लाल गर्दन वाले बगुलों की आम...
-
सुबह सरकंडे की कुर्सी पर बैठ कर वह एक एक वनस्पति को निरखता माली के आने की बड़ी बेसब्री से बाट जोहता वह मौसम से अधिक माली क...
-
एक समय ऐसा भी गुजरा जब मेरे शहर आया था श्रवणकुमार कांधे पर बेंगी को संतुलित करता उसके पलडों में धरे दृष्टिहीन और अशक्त माँ बाप...
-
चुप रहो चुपचाप सहो समझ जाओ जो चुप रहेंगे वे बचेंगे बोलने वालों को सिर में गोली के जरिये सुराख़ बना कर मार डाला जायेगा खामोश रहने वालो...