शुक्रवार, 29 जून 2018

बच्चे खेलते हैं


बच्चे क्लाशिनोकोव से खेलते  हैं
निकलते हैं मुंह से
तड़-तड़ ; गड़ -गड़ की आवाज़
खेल ही खेल में
वे धरती पर लोटपोट हुए जाते हैं
जिंदगी के पहले पहर में कर रहे हैं
मृत्यु का पूर्वाभ्यास .

खेलते हुए बच्चों  के भीतर
रगों के दौड़ते लहू को
जल्द से जल्द उलीचने की  आतुरता है
लड़ते हुए मर जाना
उनके लिए
रिंगा रिंगा रोज़ेस और
छुपम छुपाई से अधिक रोमांचक  खिलवाड़  .

बच्चे जिसे  समझते हैं खेल
वह खेल होकर भी दरअसल
खेल जैसा खेल है ही नहीं
अमन की उम्मीद और
रक्तरंजित धरती के संधिस्थल पर
अपरिहार्य युद्ध की आशंकाओं से भरी
एक खूंखार हिमाकत है.

बच्चे सिर्फ बारूद  से खेलना जानते हैं
हथगोले हमारे अहद की फ़ुटबाल हैं
कटी हुई गर्दनें हैं शांति की  रूपक
भुने हुए सफेद कबूतर
पसंददीदा पौष्टिक आहार
एटम बम को लिटिल बॉय कहते हुए
वे गदगद हुए जाते हैं .

बच्चे अब बेबात खिलखिलाते नहीं  
गुर्राते हैं ,हिंसक षड़यंत्र रचते
खेलते हैं घात प्रतिघात से भरे खेल
झपटते हैं एक दूसरे की ओर
नैसर्गिक उमंग के साथ
बच्चे सीख गये हैं 
मारने और मरने की खिलंदड़ी.

मोहनजोदड़ो



चार  या पांच  हज़ार सहस्र वर्ष पूर्व
महान सभ्यता की दहलीज पर टहलते थे
करीब चालीस हज़ार लोगों के सनातन  सपने
जहाँ अब मोहनजोदड़ो है -मुर्दों का टीला
जीवाश्म भंगुर इतिहास के पुख्ता गवाह होते हैं.

वहाँ काला पड़ गया गेंहू है तो
भूख और तृप्ति भी होगी
कहीं गोपन स्थानों पर
या फिर शायद खुल्लम खुल्ला होता होगा
रोटी का खेल भी
सभ्यता थी तो यह सब हुआ ही होगा.

वहाँ मिले तांबे और काँसे के बर्तन,
मुहरें, चौपड़ की गोटियाँ,माप-तोल के पत्थर,
मिट्टी की बैलगाड़ी,
दो पाटन की चक्की, कंघी,
मिट्टी के कंगन और पत्थर के औजार
और कुछ भुरभुराए कंकाल
जीवन था तो यह तो  होगा ही.

मोहनजोदड़ो में नहीं मिला
किसी तितली के रंगीन परों का सुराग
पंख तौलते पक्षी की उड़ान का साक्ष्य
फूलों में बसी सुगंध का कोई सुबूत
न ताबूत में सलीके से रखी
किसी तूतनखामन की बेशकीमती देह
अलबत्ता वहाँ गुमशुदा आज के सिलसिले जरूर मिले.

वहां सपने बुनने वाला न कोई करघा मिला
न कुम्हार का चाक
वक्त की रफ़्तार पर ठहरा हुआ कोई राग
किसी कलाकार के रंगों की पिटारी
मिला ताम्बे का वो आईना
जिस पर कोई अक्स कभी ठहरा ही नहीं.

मोहनजोदड़ो में रीते हुए जलाशय मिले
नीचे की  ओर उतरती सीढियां मिली
बोलता बतियाता बहता पानी न मिला
अलबत्ता कहते हैं
वहाँ समय की सघन गुफाओं में से
जवान मादाओं के खिलखिलाने की आवाज़ आती है.

वहां रखे इतिहास के पन्ने
जब तब उलटते हैं
तब हिलती हैं चालीस हजार गर्दनें
हजारों साल बाद भी कोई नहीं जानता
इनकी देह और दैहिक कामनाओं का क्या हुआ  
मोहनजोदड़ो में बहती हैं धूलभरी गर्म हवाएं
अबूझ स्वरलिपि कोई कोई गवैया अनवरत गाता हैं .



सोमवार, 4 जून 2018

मंटो को याद करते हुए


रेत के बनते –बिगड़ते टीलों के इस तरफ
एक मुल्क है ,एक मन्दिर है
ठंडा पानी उगलता हैण्ड पम्प है
दूसरी ओर भी ऐसा ही कुछ होगा
गरम हवाओं से लहराता सब्ज झंडा
सफेद चूने से पुती गुम्बद वाली इमारत
इनके अधबीच कंटीले तार की हिफाज़त जैसा कुछ
हो न हो ,वहीं कहीं अफसानानिगार भी होगा ही
जो रूहपोश हुआ सिर्फ 42 वसंत का मकरंद
अपनी जिह्वा पर लिए.

वह टोबा टेकसिंह को अपने कुरते की जेब में सम्हाले
वहाँ की जलती हुई हवाओं से पूछता होगा
मियां,कहाँ है वह पागलखाना
जहाँ उसने सुनाया अपने संगी साथियों को
रोज़ एक अफसाना
सुनते हुए सबको लगा
मंटो चाहे जितना फोहश लिखता हो शरारतन 
वह इस पागल दुनिया का वाहिद अक्लमंद है..

उसने जिन्दगी को जल्दीबाजी में जिया
उम्र के सिक्कों को सहेज कर न रखा
जैसा जिया  कागज पर झटपट दर्ज किया
लिखी हुई इबारत को अगली नस्ल की जानिब
कनकौआ बना हवा में तिरा दिया
कभी कभार ही जमीन पर आ धमकते हैं
इतने शफ्फाक चेहरे वाले
सच को सच की तरह कहने वाले दुस्साहसी सितारे.

यह अलग बात है कि तमाम लोगों को
उसके लिखे से ऐसी बू आई
जिसमें असलियत से भरी
असहज कर देने वाली
अजब गमक थी
उसके शब्दों में जादू नहीं
अपने वक्त का खालिस नमक था.

जाते –जाते वह लिख गया
अपनी आखिरी ख्वाबगाह पर लिख देने लायक खुतबा
उसने पूछ लिया आने वाले वक्त से
बताओ तो टनों मिटटी के नीचे दबा शख्स
बड़ा अफसानानिगार रहा या परवरदिगार
सीमा पार समय ने क्या प्रहसन रचा  
उसके लफ़्जों में इस तरह कारीगरी कि
वह मर ही गया बेमौत ही.

वह चला गया कायनात के आरपार
उसके लिखे अफ़साने
धरती पर गिरी सूखी पत्ती से
स्मृति में आज भी फडफडाते हैं
उसकी बेचैन रूह को मरने के लिए
जाने कितना  इंतजार करना होगा
रेत के समुद्र में उसके वजूद का सफीना
न गुरूब हुआ ,न होगा कभी.









मोची राम

छुट्टियों में घर आए बेटे

बेटे छुट्टियाँ पर घर आ रहे हैं ठण्ड उतरा रही है माहौल में   धीरे-धीरे खबर है , अभयारण्य में शुरू हो चली है लाल गर्दन वाले बगुलों की आम...