कबाड़खाने में
किताबों के ढेर में
से
अपने लिए एक अदद
किताब ढूंढना
वैसा ही है जैसे
कलकल कर बहती नदी
में से
चुल्लू भर निर्मल जल
भर लेने की हठ करना.
जहाँ तहां कागज के
पुर्जों पर लिखी
कविताओं में से
कविताओं में से
एकाध आधी अधूरी
पंक्ति
तलाश लेना भी वैसा
ही है
जैसे पा जाना
अपनी आत्ममुग्धता के
लिए
कोई भूला बिसरा
टोटका.
मन के सघन वर्षावन में
रोज उगते हैं अनगिन
नीले पीले बैंगनी फूल
मादकता का नया
मुहावरा गढ़ते
कंटीले अहसास के साथ
स्मृतियों को
लहूलुहान करते.
वक्त की हथेली से झड़
रही है उम्र
बेआवाज़ बेसाख्ता
कामनाएं मौजूद हैं देह
में
पूरी ढिठाई के साथ
समय सिद्ध नुस्खों
की पाण्डुलिपि के
जर्जर पन्नों को पलटती.
वक्त के कबाड़खाने में
सीलन है ,अँधेरा है
ठण्डक है ,आद्रता है
शरीर में झुरझुरी
पैदा करती.
ऐसे में हो जाती हैं
अक्सर
पढ़ी लिखी बातें बेकार.
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