उम्र के साथ –साथ

उम्र चेहरे तक आ पहुंची
कंठ में  भी शायद
जिह्वा पर अम्ल  बरकरार है
शेष है अभी भी हथेलियों पर स्मृतियों  की तपन
वक्त के साथ सपने भस्माभूत नहीं होते
काफी बीत जाने पर भी
कुछ है यकीनन  कभी नहीं बीतता.

देह बीत जाती है
रीत जाता है भीतर का पानी
इतने रूखेपन में भी
जरा सा गीलापन ढूंढ कर
बची रह जाती है
चिकनी हरी काई और
निर्गंध बैंगनी गुलाबी अवशेष.

उम्मीद आज  जीवंत सर्वनाम है
कामनाएं कल की पुरकशिश संज्ञा
कविताओं में अभी तक
शब्दों की आड़ में दिल थरथराता है
तितलियों के पीछे भागता बचपन
वक्त के संधिस्थल पर
मचाता है अजब धमाचौकड़ी.

समय की अंगुली पकड़
चलते चलते हम निकल आये
कितनी दूर
पतझड़ के मौसम में झड़ी पत्तियां
बहार की आमद पर करती हैं
बदलती रुत के साथ कानाबाती.


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