नन्ही बच्चियां
दो नन्ही बच्चियां
घर की चौखट पर बैठीं
पत्थर
उछालती खेलती हैं कोई खेल
वे कहती हैं इसे -गिट्टक
इसमें न कोई जीतता
है न कोई हारता है
बस बतकही और
खिलखिलाहट में गुजरता है वक्त.
दो नटखट सहेलियाँ
देखते ही देखते
सयानी हुई जाती हैं
उनके पास देखने लायक
कोई ढंग का सपना तक नहीं
सिर्फ है लिया –दिया
सा बेरंग बचपना
बाहर मेह बरसता न
होता तो
वे देर तक कीचड़ में इक्क्ल
दुक्कल खेलतीं.
एक राजकुमारी है
दूसरी नसीबन
कतरे हुए कच्चे आम
पर नमक बुरक कर
सी-सी करते हुए खाना ,दोनों को खूब भाता है
वे जानती हैं अपना
धर्म अपना मजहब
ईद की राम राम और
दिवाली की मुबारकबाद
बेरोकटोक पहुँच जाती
है एक दूजे के पास.
फिलवक्त माहौल ज़रा
तनी हुई रस्सी सा है
गाँठ ही गाँठ लगी
हैं चारों ओर
लोग सिर जोड़ कर
बतियाने की जगह
रगड़ रहे अपने नाखून खुरदरे
समय के सान पर
बच्चियां मन मसोसे बंद
दरवाजों के पीछे से
तिरा रही हैं अदृश्य
बोसों के कनकौए बड़ी उम्मीद के साथ.
बच्चियां कहती हैं
ऊपर वाले से
अपनी दुआओं में ,हे
परवरदिगार
हमें संग संग गिट्टक
खेलने का थोड़ा सा मौका
फुदकने लायक ज़रा सा
सपाट आंगन दे दे
और फिर कुछ दे या न
ही दे
बात बात पर किलकने की
सोहबत तो दे दे.
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