तीन तिलंगे और लेखक



घुटन भरे अपने कमरे में
देश दुनिया से बेपरवाह
लेखक रंग रहा है
कागज दर कागज .

छापे खाने में पसीने में तरबतर
श्रमिक दे रहे हैं
लेखक के लिखे को
एक सुंदर आकार .

प्रकाशक किताबों के ढेर को थामे
खड़ा है नतमस्तक
कमीशनखोर की देहरी पर
खीसें निपोरता .

दीमकों को आ रही है
ताज़ा कागजों की गमक
उनकी भूख का इंतज़ार
अब खत्म होने को है .

कुछ ही देर में मुक्कमल हो जायेंगे 
महाभोज के सारे इंतजाम
जिसमें ये तीन तिलंगे जीमेंगे
अपने अपने हिस्से का माल .

लेखक अपनी धुन में ऐंठा है
ख्वाबों की हरी डाल पर बैठा है
हरदम मिटठू मिटठू करता है
जीते जी रोज ही मरता है .

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