पाँव घसीटती हुई ट्रेन
मेरे शहर तक पहुँचते पहुँचते
राजधानी से आने वाली पैसेंजर ट्रेन
अकसर हांफने लगती है
वह बड़े बेमन से आती है
लगभग पाँव घसीटते हुए
माँ हमेशा बताया करती थी
धरती पर पैर घसीट कर चलना
दरिद्रता की निशानी होती है.
माँ की नसीहत के बावजूद
घर लौटता हुआ मैं सदा चलता रहा
जैसे चलती है ट्रेन
रोंगटे खड़े कर देने वाली रगड़ को
अपने भीतर महसूस करता हुआ
निरंतर यात्रा की ऊब को
सलीके से सहेजता .
घर से बाहर तक
दरिद्रता की ट्रेन रेंगती रही
मेरी शिराओं और उम्मीदों में
माँ सपना देखती रही
तमाम आशंकाओं के बावजूद
मेरी निरापद घर वापसी
रगड़ की कर्कशता से मुक्ति का.
ट्रेन हमेशा सर्र से जाती
और बोझिल पांवों के साथ लौटती रही
उसकी गति के साथ
सरकती घिसटती रही जिंदगी
मैंने चाहा कि एक दिन ट्रेन से पूछूं
तुम आने और जाने के बीच
इतना बदल क्यों जाती हो .
ट्रेन में रोज आते जाते
खचाखच भरे डिब्बे के किसी कोने में
जैसे तैसे टिकी देह सफर के दरम्यान
अपने होने को आहिस्ता से पॉज कर देती
मैं उलटी सीधी साँसें लेता
अपने से कहता ,यार बहुत हुआ
अपने से कहता ,यार बहुत हुआ
अब बंद करो पाँव घसीट कर चलना.
दबे पाँव चलता हुआ
चला आया हूँ मैं बहुत दूर
अब न माँ है ,न उसकी नसीहतें
मेरे पांवों में नहीं बचा है
रगड़ से होने वाला पहले जैसा रोमांच
अलबत्ता ट्रेन अब भी लौटती है
उसी तरह पाँव घसीटती हुई.
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