केदार जी को याद करते हुए----
मैं केदारनाथ सिंह
को जानता था
समूचा नहीं ,उतना ही
जैसे किसी बोसीदा
मकान के आंगन में
लाल फूलों से लदे गुलमोहर
के पेड़ को
जैसे लगभग खण्डहर हो
गयी इमारत के सहन में
महकती रातरानी को
जैसे उस हाथ को जो
मेरे हाथ में न हो
पर मेरी स्मृति में
जिसकी गर्माहट का रंग अभी तक बाकी है.
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते
हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और
सुंदर होना चाहिए
यह बात उन्होंने
पहले कही
या यह मैंने पहले जी
पता नहीं
लेकिन यह अच्छी तरह
पता है
एक महानगर में बसे
अपने देहाती जनपद में
ठिगने कद का एक
कद्दावर कवि रहता था.
एक कवि डिजिटल
दुनिया की परिधि से बाहर
बड़े मजे से रहता रहा
और जंगल वाले बाघ को
उसी आत्मीयता से
करता याद करता
जैसे घर –गाँव के
लुटे- लुटे से शीशम को
जैसे थकी हुई देहातन
दोपहरिया को.
केदार जी गये या
मेरे बाउजी
कोई तो है जो छोड़
गया नितांत खालीपन
मेरे वजूद के महानगर
से
उनका जाना हिंदी की
सबसे खौफनाक क्रिया है
यह जानते हुए विज्ञान
के इस क्रूर अँधेरे में
मेरी नींद बार –बार
उचटती है.
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