मंटो को याद करते हुए
रेत के बनते –बिगड़ते टीलों के इस तरफ
एक मुल्क है ,एक मन्दिर है
ठंडा पानी उगलता हैण्ड पम्प है
दूसरी ओर भी ऐसा ही कुछ होगा
गरम हवाओं से लहराता सब्ज झंडा
सफेद चूने से पुती गुम्बद वाली इमारत
इनके अधबीच कंटीले तार की हिफाज़त जैसा कुछ
हो न हो ,वहीं कहीं अफसानानिगार भी होगा ही
जो रूहपोश हुआ सिर्फ 42 वसंत का मकरंद
अपनी जिह्वा पर लिए.
वह टोबा टेकसिंह को अपने कुरते की जेब में सम्हाले
वहाँ की जलती हुई हवाओं से पूछता होगा
मियां,कहाँ है वह पागलखाना
जहाँ उसने सुनाया अपने संगी
साथियों को
रोज़ एक अफसाना
सुनते हुए सबको लगा
मंटो चाहे जितना फोहश लिखता हो शरारतन
वह इस पागल दुनिया का वाहिद अक्लमंद है..
उसने जिन्दगी को जल्दीबाजी में जिया
उम्र के सिक्कों को सहेज कर न रखा
जैसा जिया कागज पर झटपट दर्ज
किया
लिखी हुई इबारत को अगली नस्ल की जानिब
कनकौआ बना हवा में तिरा दिया
कभी कभार ही जमीन पर आ धमकते हैं
इतने शफ्फाक चेहरे वाले
सच को सच की तरह कहने वाले दुस्साहसी सितारे.
यह अलग बात है कि तमाम लोगों को
उसके लिखे से ऐसी बू आई
जिसमें असलियत से भरी
असहज कर देने वाली
अजब गमक थी
उसके शब्दों में जादू नहीं
अपने वक्त का खालिस नमक था.
जाते –जाते वह लिख गया
अपनी आखिरी ख्वाबगाह पर लिख देने लायक खुतबा
उसने पूछ लिया आने वाले वक्त से
बताओ तो टनों मिटटी के नीचे दबा शख्स
बड़ा अफसानानिगार रहा या परवरदिगार
सीमा पार समय ने क्या प्रहसन रचा
उसके लफ़्जों में इस तरह कारीगरी कि
वह मर ही गया बेमौत ही.
वह चला गया कायनात के आरपार
उसके लिखे अफ़साने
धरती पर गिरी सूखी पत्ती से
स्मृति में आज भी फडफडाते हैं
उसकी बेचैन रूह को मरने के लिए
जाने कितना इंतजार करना होगा
रेत के समुद्र में उसके वजूद का सफीना
न गुरूब हुआ ,न होगा कभी.
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