कुछ नहीं पता


 पता नहीं कैसे दिन आ गये
सघन निस्तब्धता के बीच
सेवन सिस्टर्स* ने बंद किया
बगीचे में आ औरतों की तरह बतियाना
वे लौट जाने की जल्दबाजी लिए
अब कभीकभार चुपचाप आती हैं.

बोसीदा मकान के कंगूरों पर
टहलती हैं हष्टपुष्ट बिल्लियाँ दबे पाँव
अब कहीं दूध दही भरी हंडिया
छीके पर लटकी न दिखती
बिल्लियों को हरदम तलाश रहती है
भरपेट दाना चुग ऊँघते कबूतरों की.

काम की तलाश में निकला मंगलू
लौट आता है मुस्कराता बीच रास्ते से
पुलिसिया बेंत का निशान कमर पर लिए
बताता हर आते जाते को गर्व से
वह यदि इतना फुर्तीला न होता तो
आज होती जमकर पिटाई .

कुछ लोग बॉलकनी में बैठे
दिन भर ऊँघते रहते
इस बीच कतिपय सयाने कर आते
मौका ताड़ झटपट कैटवॉक
उनके लिए वॉक महामारी के ख़िलाफ़
उनके हिस्से की फैशनेबल जंग है.

पता नहीं कभी निविड़ अँधेरे को चीर
उजियारे दिन धरा पर आ भी पाएंगे.
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*भूरे रंग की चिड़िया जो चहचहाती है तो लगता है कि बहुत सी महिलाएं परस्पर हँसबोल रही हैं.

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