पेंसिलों वाला सपना
एक अजीब –सा सपना
रोज देखता हूँ
मेरे पास है चिकने
पन्नों वाली डायरी
साथ हैं बेहद सलीके से तराशी हुई चंद पेंसिलें
जिनमें से आती कच्ची
लकड़ी की गंध
पेन्सिलों के पृष्ठ
भाग में नत्थी है एक रबर
वक्त द्वारा खींच दी
गयी हर अवांक्षित लकीर को
आराम से मिटाते चलने
के लिए.
ऐसी पेंसिलें अब चलन
में नहीं
जिनका ग्रेफाइड टूट
कर क़ागज पर बार बिखरता हो
पेन्सिलों का खुदरा दुकानदार
बताता है
पूछना चाहता हूँ कि क्यों
क्या अब कोई कहीं
कुछ गलत नहीं लिखता
कि उसे दुरुस्त कर
लिया जाये.
चाह कर भी कुछ न पूछ
पाया
चुपचाप उचक कर साइकिल
पर हुआ सवार
चला गया शहर के उस
कुख्यात चायघर की ओर
जहाँ लोग निरंतर चाय
पीते
क्रांति का अमूर्त
रोडमैप बनाते
एक दूसरे को दिखाते रिझाते
लोटपोट हुए जाते हैं
वहाँ हरदम सघन सफ़ेद धुआँ
और अदृश्य कोलाहल भरा
रहता है.
कहने को तो हमारे समय
की पेंसिलें बहुरंगी हैं
पर इनसे हरेभरे पेड़,
नाचता हुआ मोर
कलकल करता नीला चमकीला
जल या
सुरखाब के पर कोई
नहीं रंगता
इनसे अब कोई नहीं सजाता
स्वप्निल ड्योढ़ी.
बेतरतीब काली भूरी
बैंगनी आकृतियां
हमारे वक्त का
सम्भावित मुकद्दर हैं
उदास पन्नों के
बीचोंबीच फंसी नुकीली पेंसिलें
जब तब बरछी बन कलेजे
में गहरे तक धंस जाती है.
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