समय की बोधकथा
प्रत्येक वाक्य आजाद कर दो
लफ्ज़ और लफ्ज़ के बीच
बने सारे सेतु
भरभरा कर ढह जाने दो
बच्चों को खेलने के
लिए दे दो
कविताओं के सारे आधे-
अधूरे वाक्य
गिलहरियों को मवेशी बाँधने
वाली जंजीरों में न बांधो.
बगीचे में आज भी चली
आई चितकबरी तितली
सदाबहार फूलों का
मकरंद पाने की लालसा लिए
वह कई दिनों से आती
जाती लगातार
चली गई उड़ते-उड़ते
काल के आरपार
गंध ही उसकी दिशा
सदियों से है जिंदा
रहने की जिद लिए.
बरसात की अराजक
हरियाली में
शर्मीली चिड़ियाँ दिन
भर रचाती रास
आसमानी बूंदों की
मादक आवाज़ में आवाज़ मिला
चहचाहट की कूटभाषा
में करती परस्पर प्रणय निवेदन
तिनका-तिनका जोड़
बनाती घोसला
घर बनाने का कौशल ही
दरअसल प्रेम का इज़हार है.
एक दिन ऐसा आएगा
शायद
जब आसमान जल भरे
काले मेघों से अंटा होगा
तेज हवाएं उड़ा ले
जाना चाहेंगी
तमाम तरह के आर्द्र
सपने
घर भले ही तिनका
तिनका हो जाये
नींद की परिधि के
बाहर सपनों के मोहल्ले फिर भी रहेंगे.
एक न एक दिन सारी
संज्ञायें मिट जाएँगी
सर्वनाम फिर भी बचे
रहेंगे
विशेषण जहाँ तहां
चमगादड़ की तरह उलटे लटके मिलेंगे
भुतही हवेलियां रोज
रक्तरंजित कथाओं का पुनर्पाठ करेंगी
वर्तमान के नेपथ्य
में सिर्फ धुंध ही धुंध भरी होगी
तब इतिहास की
किताबों में मनेगा कागजी उत्सव.
वक्त जैसे बीतता है
व्यतीत होने दो
चुपचाप देखते रहो रिक्तता
से भरे
प्रज्ञा के पागलखाने
की दीवारों को
सुन पाओ तो कान लगा
कर सुन लो
तर्क की कसौटी पर ठिठकी
ठहरी
समय की व्यर्थता भरी
बोधकथा.
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