पापाजी नहीं रहे
सुबह का वक्त था
वह ग्राहक के लिए जल्दी
जल्दी
सामानों की पुड़िया
बाँध रहे
बीच बीच में पूछते
जाते ...और
लिखते जाते चीकट
कागज पर सारा हिसाब
उन्होंने पेन्सिल को
अपने कान के पीछे खोंसा
ऊपर गर्दन उठाते
मुझे देखा, कहा –हाँ भईया.
मेरे पास देने को एक
मनहूस खबर थी
कहा- ताऊजी पापाजी
नहीं रहे
सुनते ही वह एकदम
धप्प से फर्श पर उकडू बैठ गये
कब-उनका मुख खुला तो
उन्होंने शायद पूछना चाहा
कब तक ले जाओगे,
लेकिन पूछ ली यह बात
वह तो मुझसे पूरे
चार बरस छोटा था
कोई दिक्कत महसूस हो
तो कहना
उन्होंने एक
दुकानदार की सी दुनियादारी वाली बात
एक एक लफ्ज़ तोलते
शायद बहुत सम्भाल कर कही.
वापस जाने को मुड़ा
तो उन्होंने कहा
भईये ज़रा रेडियो मिस्त्री
को भी बताते जाना
दोनों की न जाने
कितनी शामें
बर्मा में हुई भीषण
जंग की तफ़सील बयाँ करते करते बीती
उनका अतीत परछाई की
तरह साथ चला
मैंने उन तक जब शोक
संदेश पहुँचाया
वह कोई खराब हुआ
रेडियो सुधारने में लगे थे
सूचना सुनी तो
उन्होंने पेचकस हवा में लहराया
इतना जीदार बंदा ऐसे
कैसे मर सकता है-चुपचाप.
मैं साइकिल को तेजी
से भगाता हर उस जगह गया
जहाँ उनके नज़दीकी दोस्तों
के मिलने की उम्मीद थी
वह कहते थे-गुजर
जाऊं तो उन लोगों को जरूर खबर दे आना
जिन्हें तेरी माँ सदा
लफंगा समझती रही
वही तेरे काँधे का
बोझ थोड़ा बहुत हल्का करेंगे
बाक़ी यदि आये तो आये
; न आये तो भी क्या
मेरे उस एमएलए मित्र
को तो भनक भी लगने देना
आएगा तो बिला वजह
तरह-तरह के कौतुक करेगा.
बेटा –ये सफ़ेदपोश
किसी मर्ज की दवा नहीं होते.
ये लफंगे ही होते
हैं जिंदगी के साथ भी
काम के साबित होते
हैं जिंदगी के बाद भी,
तब यह कह वह जोर से
हंसे थे
मेरे पिता इस तरह
शायद ही पहले कभी हँसे हों
शोक की घड़ी में उनका
चेहरा कनखियों से देखा
लगा कि वह अपने ख़ास
अंदाज़ में मुझे या
अपने दोस्तों को या मौत
को मुंह चिढ़ा रहे हैं.
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