चार छोटी कवितायें
एक :
मैंने उम्र भर खुद से पूछे इतने सवाल
कि अगले कई जन्म
मैं सिर्फ जवाबों के चप्पुओं से
खे ले जाऊँगा
अपने मुस्तकबिल की कागज़ी नाव.
दो :
देह पर जब न बचा कुछ भी
उघाड़ने लायक
तब उन्होंने कहा ज़रा लजाते हुए
आओ चलो खेलें हम-तुम
छुपम-छुपाई; छुआ-छुआई का
रूहानी खेल।
तीन:
स्मृतियाँ बड़ी खूंखार होती हैं
आदमखोर और वनैली भी
वक्त के विस्मयबोधी चिन्ह के नीचे टंगी
रक्ताभ बूँद से अधिक क्रूर
कायनात में कुछ भी नहीं.
चार :
उँगलियाँ बेहया होती हैं
रीढ़ कांपती है देर तक
स्पर्श भर से
आँखें रंग बदलती हैं पलछिन
इन्र्द्रधनुष देह में
अनायास खिंचा जाता है.
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