बरसों बरस की डेली पैसेंजरी के दौरान रची गई अनगढ़ कविताएँ . ये कवितायें कम मन में दर्ज हो गई इबारत अधिक हैं . जैसे कोई बिगड़ैल बच्चा दीवार पर कुछ भी लिख डाले .
उदासी ही उदासी
कालातीत दुर्लभ।
मेरी बंद मुट्ठी में भरी है
सिर्फ़ रेत ही रेत
रेतघड़ी वाले वक्त से
उसका कोई लेना देना नहीं।
मेरे भीतर की खोह में है
वनैली मुस्कान का बसेरा है
इच्छाओं के रक्तरंजित सफ़े
पलक झपकते पलटते हैं।
समय पर ठहरी देह
हौले-हौले
बेआवाज़ व्यतीत हुई जाती है।
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