साइकिल पर टंगी ढोलक
अलसभोर जा रहा साइकिल पर बांधे
सलीके से मढ़ी , हरी पीली ढोलकें
इसकी थाप पर सदियाँ गाती आईं
अपने समय के मंगलगान
जटिल समय में सवाल यह, कौन बजाये इसे
स्वछंद विचरते यम के दूतों के समक्ष.
शहरों में मुर्दे कतारों में हैं
परिजन जिंदा बने रहने की ख्वाईश लिए
कनखियों से देखते ,उकताते कहते
अब मर तो गयी देह
अब कितना वक्त और लगेगा
इसके इहलोक से परलोक गमन में.
सड़क पर डंडा फटकारता सिपाही पूछ रहा
ए रे , तू कहाँ चला ढोलक लिए सवेरे सवेरे
जवाब आता, बच्चे भूखे बिलखते घर पर
सोचता , इनमें से एकाध बिक जाये तो
मेरे बच्चे भी थोड़ी देर मगन हो लें
भरे हुए पेट के साथ गाते बजाते.
वह कहता, अजी सिपाहीजी निकल जाने दो
क्या पता किसी गली-कूंचे में
ढोलक के बिना अरसे से स्थगित हो
किसी जगह कोई क्वांरी उत्सवधर्मिता
बाट जोहती हो कदाचित जिद्दी स्वप्नजीवी
कायदे से मढ़ी हुई ढोलक की.
वक्त चाहे जितना भविष्य विरोधी हो
फिर भी कतिपय थाप
थिरकने को आतुर जनाना पाँव
कामनाओं की स्वर लहरी मौजूद रहती है
अपने अपने किस्म के
समयानुकूल निर्द्वन्द निर्वात में.
साइकिल पर टंगी हरी पीली ढोलकें
बड़ी जादुई हैं यकीनन
ये हैं थाप की संगीतमय उपस्थिति है
कुछ दिनों के लिए
रुखी सूखी रोटी का जुगाड़ है
बचीखुची जैसी –तैसी आस है.
बढिया कविता है !
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