आषाढ़ की तपती दोपहरी में लिखी कविता

दर्द याद रहता है 
ख़ुशी गुम हो जाती है
दंश विस्मृत नहीं होता
स्पर्श में से बचा रह जाता है
उतना हिस्सा
जो रह जाता है उँगलियों पर चिपक कर।
भूख अमाशय में रहती है
जिह्वा पर उड़ती है स्वाद की तितली
खाली पेट तमाम कोशिशों के बावजूद
मुनादी वाले नगाड़े सा नहीं बजता
तृप्ति एक फर्जी व्यंजना है
कविता के कूड़ेदान में पड़ी जूठन.
सच की बात करते करते
झूठमूठ चेहरे पर ओढ़नी पड़ती है उदासी
अपनापन खोजता आदमी अक्सर
निकल पड़ता है अंतरांध यात्रा पर
यात्रायें जो कभी नहीं थमतीं
जिनमें गति सदा संदिग्ध रही.
आषाढ़ के महीने में याद रहती है
ज्येष्ठ की भरपूर दोपहरी
टोंटी वाले घड़े से रिसता है
हमारे समय का सादा पानी
अलसाये हुए धूपिया वक्त में
पसीने में लथपथ कोई याद नहीं आती.
लोक कथाओं वाला प्यासा कौआ
अब क्यों नहीं आ बैठता घर की मुंडेर पर
उसकी चोंच में अब कोई पत्थर नहीं दिखता
हर हाल में ठंडे जल में
चोंच डुबा देने की उसकी चतुराई क्या हुई
उपस्थिति जताने वह बार बार क्यों नहीं आता.
तपते हुए जानलेवा दिनों में बचे
तो हम भी लम्बी ठण्ड भरी रातों में
बच्चों को सुनायेंगे
हंसते हँसाते जिंदा बच निकलने के
कुछ अविश्वसनीय चुटकुले
कुछ नितांत कपोल कल्पित कथाएं.

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