मई महीने की कविता





मई का महीना नि:शब्द गुजर रहा
मेरी खिड़की से दिख रहीं
चारदीवारी पर चहलकदमी करती
चंद मरियल बिल्लियाँ
उन्हें देख कबूतर भी नहीं डरते
ये सभी कई दिन से भूखे हैं.
सडकें फिर खूब वीरान हो चली हैं
कांख में गठरी, बगल में बच्चा दबाये
जवान मादाएं अपने-अपने नर के सहारे
निकल आई हैं पैदल ही ऊँची उडान पर
आदमी को नहीं पता
वे चलता चलता कहाँ चला जाएगा.
लॉकडाउन के आरामदायक दिनों में
ठंडे कमरे से झांकती कई जोड़ी आखों के लिए
धूप, बहुरंगी फूलों से लदी बोगेनवेलिया की झाड़
आसमान की ओर मुंह उठा रोती बिल्लियाँ
थकन से चकनाचूर बच्चों का पैर पटक रोना
उदास हो लेना उनके लिए शगल भर है.
यकीनन मेरी खिड़की से न हिमालय समीप सरकता है
न अटरांंटिका पर पेन्गुईन शोरोगुल करती हैं
न सियाचिन से घर लौटते जवानों की टोली दिखती है
न बर्फ के गोले फेंकते नॉटी कपल्स नज़र आते हैं
न किसी जलाशय के आसपास नंगे मसखरे मुंह चिढ़ाते हैं
वहाँ से बार-बार दिख जाते हैं सिर्फ दु:स्वप्न.

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