कल रात

कल पूरी रात
आंखों से बहता रहा पानी
बाहर का अँधेरा भीतर चला आया
लेपटॉप पर  खोजता रहा
नींद को झपट लेने की
सिक्काबंद तदबीरें .

कल पूरी रात
बादल गरजते रहे रुक रुक कर
उमस ने पसीने में से नमक अलग किया
तकिये पर कढ़ी देख
गुड नाईट की इबारत
याद आई भूली बिसरी सुबह.

कल पूरी रात
मन के कारागार में हलचल रही
जल्लाद और जेलर
फंदे और तख्ते  परखते
करते रहे जश्न की तैयारी
उदासी के बंदनवार सजाते.

कल पूरी रात  
मुस्कुराने की कोशिश रही नाकाम
समय चलता रहा घड़ी में
बेखुदी  की मुंडेर पर दबे पाँव 
किसी ने नहीं पूछा
इस कदर खामोशी का  सबब.

कल पूरी रात
डायरी के पन्ने फडफडाते रहे
देहगंध के निराकार साये में
उम्मीदें नाचती रहीं  
मगन होकर
सुर ताल लय को धता बताती.

कल पूरी रात
रात हुई ही नहीं
अँधेरा घिरा रहा चारों ओर
कामनाओं की चादर ओढ़  
मौजूद रही कालिमा 
तमाम चुनौतियों के बीच..

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