निर्मल गुप्त की कविताएँ
बरसों बरस की डेली पैसेंजरी के दौरान रची गई अनगढ़ कविताएँ . ये कवितायें कम मन में दर्ज हो गई इबारत अधिक हैं . जैसे कोई बिगड़ैल बच्चा दीवार पर कुछ भी लिख डाले .
सोमवार, 1 सितंबर 2025
साइन लैंग्वेज और कटफोड़वा की खट-खट
गुरुवार, 7 अगस्त 2025
लड़कियों के खवाब
कोई कहीं
घुमाती होगी सलाई
रंगीन ऊन के गोले
बेआवाज़ खुलते होंगे
मरियल धूप में बैठी
बुनती होगी
एक नया इंद्रधनुष.
लड़कियां
कितनी आसानी से उचक कर
पलकों पर टांग लेती हैं
सतरंगे ख्वाब.
अलविदा
बैग पैक करते हुए
उसने हवाओं से कहा
शायद आखिरी बार
तो अब?
इसका जवाब सादा था
पता था हमें
कहना बड़ा मुश्किल.
अलविदा .....
दुनिया का सबसे अधिक
जिंदा जावेद और जटिल लफ्ज़ है.
तितली और तानाशाह
उसके होठों के नीचे
तितली हमेशा बैठी मिली
तानाशाह कहाँ छुपाये रहा
उम्र भर अपना प्यार
और खिला हुआ
मकरंद से भरा गुलाब.
कविता और साजिश
इतिहास के पन्नों के बाहर
खांटी सच के इर्द -गिर्द
साफ़ लफ्जों में दर्ज है
कमोबेश हर तानाशाह
विध्वंस के मंसूबे बनाता
लिखता रहा
उसके हाशिये पर कवितायें.
रविवार, 6 मार्च 2022
छुट्टियों में घर आए बेटे
बेटे छुट्टियाँ पर घर आ रहे हैं
ठण्ड उतरा रही है माहौल में धीरे-धीरे
खबर है,अभयारण्य में शुरू हो चली है
लाल गर्दन वाले बगुलों की
आमद
वे आते हैं तो जंगल में
मंगल हो जाता है
घर भर में भर जाती है लाड़
पगी गंध ।
बेटे आते हैं तो घर हॉस्टल
बन जाता है
करीने से सजी चीजें हो जाती
हैं तितर-बितर
दीवार पर टंगी बच्चों के
दादा-दादी की तस्वीर
खुद-ब-खुद ज़रा तिरछी-सी हो
लेती है
लेकिन ताज्जुब की बात यह
हमेशा उदास दिखने वाले
पूर्वज
फ्रेम जड़ी तस्वीर में बड़ी अदा
से मुस्कराते हैं।
बेटे घर आते ही जल्द ही इस
तरह सो जाते हैं
जैसे बरसों से उन्हें
चुल्लू भर नींद की तलाश रही
जैसे उन्हें अन्यत्र सोने
लायक अंधेरा हाथ न लगा
जैसे नेह भरी मम्मी
इर्द-गिर्द है तो चादर तान के सो रहो
जैसे बड़े बाप का बेटा होने
का भावार्थ पता लगा
लगता है बेटे घर पर्व में
शामिल होने नहीं
शायद सिर्फ सोने को
ही आते हैं।
बेटे चाहे जितने बड़े हो
जाएं
अपनी मम्मी से एक हाथ ऊपर
बाइक पर फर्राटा भरते
फरर-फरर इंग्लिश बोलते
बड़ी-बड़ी देश-दुनिया की बात
मिलाते
मोबाइल पर किसी से
चुपके-चुपके बतियाते
मम्मी को देख झट से झेंप जाते ।
बेटे जब-तब घर आते हैं
मम्मी बड़ा इतराती है
किचन में तरह-तरह के व्यंजन
पकाती
वहाँ की हवाओं को बताती है
मेरा कान्हा दही-बड़े चाव से
खाता है
और बड़ा वाले को पसंद है
कुरकुरी भिंडी।
बेटे कान पर हैडफोन लगाए
इधर-उधर टहलते हैं
लगातार कुकिंग से थक चली
मम्मी बड़बड़ाती है
हे प्रभु , कम से कम एक बिटिया तो देता
होती तो घर के कामों में
हाथ बँटाती
तभी बेटे नमूदार हो कहते
हैं
डॉन्ट वरी मम्मी, हमसे बेहतर खानसामा कौन।
मम्मी को किस बेटे में
कब दिख जाए किसी अजन्मी
बिटिया की झलक
यह बात कोई नहीं जानता
पर किसी ने किसी बेटे को आज
तक
पापा की परी में बदलते कभी
नहीं देखा।
शनिवार, 25 दिसंबर 2021
शुक्रवार, 24 दिसंबर 2021
शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2021
वक्त का बाइस्कोप
मुझे अच्छी तरह से याद है
वह भरे जाड़े के बीच एक
गुनगुनी शाम थी
उस दिन मुझे मिले थे चमचमाते जूते
जिन्हें मैंने अनहोनी के गहने की तरह
दुबका लिया मिलट्री वाले काले कंबल की तह में
और तय किया कि खाली हुए दफ़्ती के डिब्बे से बनाऊँगा
एक दिन एक बाइस्कोप
यह उन दिनों की बात है जब फिल्में
अपने खामोश दिनों को इतिहास की अलगनी पर रख
वाचाल होने की जल्दबाजी में थीं।
मैंने घर में पड़ी चिकने कागज पर छपी
रद्दी पत्रिकाओं में से तमाम रंगीन चित्रों को
ढूंढ-ढूँढ कर सलीके से कतर लिया
जलते हुए चूल्हे पर सिकती रोटी की छवि को
खुले हुए रेफरिजेटर से झाँकते रंगबिरंगे ठंडे फलों की आभा
को
हल चलाते किसान के चेहरे पर चुहचहाते पसीने के लवण को
जल भरे मटके को बगल में दबा कर जाती युवती के संकोच को
और न जाने कितनी आकृति, कितने स्वरूप सहेज लिए।
इसके बाद बड़े जतन से मैंने मैदे से लेई बनाई
तस्वीरों को जोड़ दृश्य रचे
उन कतरनों से चंद कहानियाँ
और कुछ अनकहे किस्से आगे बढ़े
दफ़्ती के डिब्बे में आयताकार परदा बना
दोनों तरह सरकंडे लगा दृश्यावली लपेटी
किस्से सरकने शुरू हुए ,सरकते गए
बेआवाज़ कल्पना ऊंची उड़ान पर जा निकली।
मुझे अच्छी तरह से याद है
उस बाइस्कोप ने आगे चल कर
न जाने कितने स्पर्श के जादू रचे
न जाने कितने वयस्क गोपन संसार के रहस्य खोले
न जाने कितने अराजक अफ़साने गढ़े।
दिन बीत गए , बीतते गए
स्मृति में बाइस्कोप की रील जब तब
जड़ता का अतिक्रमण कर स्वत: सरकने लगती है
समय बीत जाने के बावजूद व्यतीत कहाँ हुआ
लगता है वक्त भले रीत गया
मन की सतह पर नीला थोथा मिली लेई से चिपकी यादें
वर्तमान के बाइस्कोप के भीतर कठपुतली सी
जब- तब थिरक उठती हैं।
सोमवार, 7 जून 2021
वह बताती है
वह रह-रह
कर हवाओं को
तरह-तरह के सपने सुनाती
लगता कि वह बाँच रही
विभिन्न शेड वाली
लिपिस्टिक का तिलिस्म
लिप ग्लॉस की करामाती
खूबियाँ
सौंदर्य के
ब्रह्मांड में विचरने के लिए
उसके अधरों को बहुत
दूर तक जाना है
समय की रहस्यमय तह
में गुम हो जाना है।
उसने भविष्य के वक्ष
पर
अपने रेशमी केश
छितरा दिये हैं
वह चाहती तो
अतीत के झुके हुए
कंधे पर सिर रख देती
उसकी दायें हाथ
की हथेली को
अपने बाएँ हाथ के
वर्तमान में थाम
देह की सरसराहट
को
अज्ञेय कामनाओं
को थमा देती।
उसने बिना एक शब्द
उच्चारे कहा
देह में जो गमकता
है
वह इत्र-फुलेल
नहीं
रूह में सदियों
से रिसता रसायन हैं।
उसे भली-भांति
पता है
प्यार का कोई निर्जन
द्वीप कहीं नहीं
सिर्फ युगीन
चेष्टाओं की भुतहा सराय हैं
उसमें शायद कोई नहीं
रहता
भयावह पदचाप को
अनसुना करता जीवन
उसके नजदीक से बार-बार
दबे पाँव गुजर जाता है।
रविवार, 23 मई 2021
मई महीने की कविता
गुरुवार, 20 मई 2021
फिसलता वक्त
एक-एक कर छूटती जा रही
मनपसंद आदत, शानदार
शगल, दिलफ़रेब लत
जीवन में गहरे तक समायी
अराजकता
जब तब उदासी ओढ़
लेने का हुनर और
कहीं पर कभी भी
बेसुध नींद में उतर जाना
मानो मन ने भुला दिया अरसा हुआ।
उम्र फिसल रही है
हाथ से धीरे-धीरे..
बहुत दिनों तक हर
फ़िक्र को
बेहद लापरवाही से
धुंए में उड़ाया
मन बेवजह मुदित
हुआ तो
नुक्कड़ वाले
हलवाई के यहाँ जा जीम आये
दौने में धर दो
चार इमरती
देर तक पानी न
पिया कि
जीभ पर टिका
स्वाद तत्क्षण गुम न जाये।
ढेर सारी हिदायत
तमाम परहेज
हर सांस के साथ
तरह-तरह की नत्थी शर्तें
जिन्दा बने रहने
को बार-बार करना हो
प्राणांत का
फुलड्रेस रिहर्सल
देह से गमन ऐसा
जैसे अमरत्व का कोई स्वांग.
मरना जीने से भी जटिल हुआ मानो।
मोची राम
साइन लैंग्वेज और कटफोड़वा की खट-खट
महामारी के भीषण दिनों में उन लोगों ने बातून नौनिहालों को जबरन सिखवाया सिर्फ इशारों ही इशारों में अपनी जरूरत भर की बात कह लेना किसी मूक बघिर...
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सुबह सरकंडे की कुर्सी पर बैठ कर वह एक एक वनस्पति को निरखता माली के आने की बड़ी बेसब्री से बाट जोहता वह मौसम से अधिक माली क...


