सोमवार, 31 अगस्त 2020

समय की बोधकथा


प्रत्येक वाक्य  आजाद कर दो

लफ्ज़ और लफ्ज़ के बीच बने सारे सेतु

भरभरा कर ढह जाने दो

बच्चों को खेलने के लिए दे दो

कविताओं के सारे आधे- अधूरे वाक्य

गिलहरियों को मवेशी बाँधने वाली जंजीरों में न बांधो.

 

बगीचे में आज भी चली आई चितकबरी तितली

सदाबहार फूलों का मकरंद पाने की लालसा लिए

वह कई दिनों से आती जाती लगातार

चली गई उड़ते-उड़ते काल के आरपार

गंध ही उसकी दिशा

सदियों से है जिंदा रहने की जिद लिए.

 

बरसात की अराजक हरियाली में

शर्मीली चिड़ियाँ दिन भर रचाती रास

आसमानी बूंदों की मादक आवाज़ में आवाज़ मिला

चहचाहट की कूटभाषा में करती परस्पर प्रणय निवेदन

तिनका-तिनका जोड़ बनाती घोसला

घर बनाने का कौशल ही दरअसल प्रेम का इज़हार है.

 

एक दिन ऐसा आएगा शायद

जब आसमान जल भरे काले मेघों से अंटा होगा

तेज हवाएं उड़ा ले जाना चाहेंगी

तमाम तरह के आर्द्र सपने

घर भले ही तिनका तिनका हो जाये

नींद की परिधि के बाहर सपनों के मोहल्ले फिर भी रहेंगे.

 

एक न एक दिन सारी संज्ञायें मिट जाएँगी

सर्वनाम फिर भी बचे रहेंगे

विशेषण जहाँ तहां चमगादड़ की तरह उलटे लटके मिलेंगे

भुतही हवेलियां रोज रक्तरंजित कथाओं का पुनर्पाठ करेंगी

वर्तमान के नेपथ्य में सिर्फ धुंध ही धुंध भरी होगी

तब इतिहास की किताबों में मनेगा कागजी उत्सव.

 

वक्त जैसे बीतता है व्यतीत होने दो

चुपचाप देखते रहो रिक्तता से भरे

प्रज्ञा के पागलखाने की दीवारों को

सुन पाओ तो कान लगा कर सुन लो  

तर्क की कसौटी पर ठिठकी ठहरी

समय की व्यर्थता भरी बोधकथा.

 

 

 

 

  

 

 

गुरुवार, 27 अगस्त 2020

एक निठल्ली दोपहर में लिखा कविता जैसा कुछ


कविता इसलिए भा गयी

इसमें विराम अर्धविराम या

ऐसे ही किसी अंडबंड चिन्ह को लगाने की

कोई बाध्यता न थी

शब्दों की चंट गिलहरियों को आज़ादी

वे किसी भी भाव को कुतरते

उम्मीद भरी मनचाही फुनगी तक जा

देर तक उस पर ठहरी रहे

 

बंध कर रहना कभी हो न सका

पंख कतर दे या उन्हें बांध दे या  

बड़े हवादार पिंजरे में रख छोड़े

उड़ना सम्भव न हुआ तब भी

पंख फडफडाना कभी न रुका

ज़िन्दगी भर जो किया

हमेशा अशर्त आवेग में किया

 

प्यार जैसे लफ्ज़ को लेकर

मन सदा सशंकित रहा

इसका वजूद ऐसा जैसे

अदृश्य परवरदिगार की उपस्थिति का विभ्रम

जैसे दूरस्थ इलाके से उठती

सामूहिक विलाप की लयबद्ध आवाजें

जैसे सदियों से उदास लड़की का

गहरी नींद में अचानक मुस्करा उठना

 

कभी कभी लगता है

मेरे पास से होकर कोई हमशक्ल गुजर गया

किसी ने मुझे बहुत धीरे से छुआ

किसी ने लगभग नि:शब्द पूछ लिया

बताओ , इस बार सफर कैसा रहा हमसफ़र

अबकी बार हर साँस के साथ

ख़ुद की शिनाख्त में कितनी एहतियात बरती.

 

अब जबकि दिन ढलने को हुआ

मन चाहता है कि ख़ामोशी टंकी चादर पर

पैरों को पसार कोलाहलपूर्ण सपने देखते

जी ली जाये बड़ी तसल्ली के साथ

एक हैरतअंगेज गहरी नींद

जिसके टूट जाने का कोई खतरा न हो.

 

 

मोची राम

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बेटे छुट्टियाँ पर घर आ रहे हैं ठण्ड उतरा रही है माहौल में   धीरे-धीरे खबर है , अभयारण्य में शुरू हो चली है लाल गर्दन वाले बगुलों की आम...