रविवार, 19 जनवरी 2020

सदाकत का शिनाख्ती कार्ड


सदाकत देखते ही देखते
चौरसी* से कुरेद लेता सख्त से सख्त काठ पर
खूबसूरत बेल बूटे , नाचता हुआ मोर
छायादार पेड़ ,फुदकती गिलहरी , उड़ती तितली
खिला हुआ फूल , खपरेल वाला सुंदर मकान
मटकी लिए जाती पतली कमर वाली षोडशी.

उसे मिला हुआ सरकार बहादुर से
माकूल मुआवज़ा, पेंशन आदि का अस्फुट आश्वासन
दिलासा के ढाढस भरे गोलमटोल अलफ़ाज़
शिल्पकार होने का चित्रमय शिनाख्ती कार्ड.

लोग कहते यार सदाकत तू शिल्पकार तो शानदार  है
वह मारे ख़ुशी के लगभग दोहरा  हुआ जाता
पहली फुरसत में  सही दिशा भांप
परवरदिगार के सजदे में सर नवाता
उसे नाज़ था अपनी  हुनरमंदी पर
अक्सर बच्चों सहित अधपेट सोता  
उकता गया आखिरकर.

उसने हुनरमंद हाथों को कांख में दबा
मस्जिद के पेश इमाम से पूछा
हज़रत बताएं करूं क्या
जवाब आया – पांच वक्ती नमाज़ी बनो
फिर इससे पूछा , उससे पूछा
एक दुनियादार ने दबी जबान में सलाह दी
मियां छोड़ो ये कारीगरी -वारीगरी
चलो आओ ई- रिक्शा चलाओ.

उसने झिझकते झिझकते
बैटरी वाली रिक्शा किराये पर उठाई
चाभी घुमाई ,बेआवाज़ स्टार्ट हुई
दौड़ चली  सड़क पर
वह सवारियां ढोता
जायज़ भाड़ा लेता, मालिक को किराया देता है
पुलिस वाले को नाजायज़  हफ्ता भी
जुम्मेरात को चढ़ा आता पीर पर बताशे
उसके हुनरमंद हाथ अब कतई शर्मिदा नहीं.

अधपेट सोना अफसाना हुआ
वह जब कभी चौरसी को देखता
तो उदास हो उठता –बेवजह
घर के सहन में लगी जंग खाई कील पर लटका
डोरे में बंधा शिल्पकार वाला शिनाख्ती कार्ड
हवा के तेज झोंके के साथ डोलता
सदाकत वल्द करमुद्दीन को मुंह चिढाता है.
++++++++++++++++++
चौरसी –लकड़ी पर नक्काशी करने वाला हाथ का औजार

शनिवार, 18 जनवरी 2020

ऑपरेशन के इर्दगिर्द

उस दिन मंगलवार था
टांग तुड़ा कर ऑपरेशन टेबल पर न होता
तो वह चोले का सामान लिए लाल लंगोटी वाले के सामने
झेंपा झेंपा सा खुद को पूर्वपरिचित आँखों से बचा रहा होता
ढंग से धार्मिक या आस्थावान न होने के बावजूद
जीवन की दूसरी पारी में वह मन्दिर तक टहल आता है
जिन्दगी में अधर्म की ही सही, थोड़ी –बहुत चाशनी बनी रहे .

उस दिन ऑपरेशन थियेटर के बाहर
जगह -जगह और क्या चल रहा था ,पता नहीं
अलसभोर उसने फज़र की अज़ान सुनी
तब कहा शायद खुद से
ए नमाजियों, मुझे अपनी दुआओं में याद रखना. 

थोड़ी देर पहले उसने कनखियों से देखा
बड़ा बेटा एक कागज को थरथराते हाथों में थामे  
गहरी सोच में डूबा था
पापा यहाँ से सकुशल निकल आये तो ठीक
न आ पाए तो ...उहूँ देखा जाएगा
छोटे ने निशब्द आश्वस्ति उकेरी थी.  

दोनों  बेटों के पास
अप्रत्याशित घटित होने की स्थिति में
आपदा  प्रबंधन के लिए यकीनन
गायत्री मंत्र के जाप के अलावा भी
कोई अनन्तिम पुख्ता प्लान रहा होगा ही.

उसका अधिकांश शरीर निस्तेज
पर कान कार्यरत थे यथावत
तभी महीन –सी आवाज़ ने
भदेस चुटकुले जैसा कुछ सुनाया
फिर खबर दी कि
उसकी  हसबेंड आज सुबह लौट  गयी खाड़ी देस
इतनी विकट सर्दी में तेरा क्या होगा ऐंजिला
हल्की सी  हंसी उठी कि थम गयी.

कुछ इस्पात के औजार खड़के
फिर एंटी सेप्टिक घोल में सराबोर आवाज़ गूंजी
कम ऑन ,कम ऑन स्टेपल करो ,आगे बढ़ो.
उसे लगा जिन्दगी  पन्ना पन्ना हुई पड़ी  है
अब वे उसे क्रमवार लगाने में लगे हैं.

बड़ा भारी है मरा ,किसी ने कहा
भारी कहाँ ये तो पेसेंट है बहना
उसे लगा कि वह स्ट्रेचर पर आलू के बोरे की तरह लुढ़का है
घर्र घर्र करता स्ट्रेचर चला
हटो चलो रास्ता दो –ले आओ.

ओह .ऑपरेशन मुकम्मल ,बेटे ने गहरी सांस ली
पत्नी ने बंद किया हनुमान चालीसा  का उच्चारण
ठण्ड के मौसम में गले पर चुह आये पसीने को दुपट्टे से पोंछा.

ऑपरेशन सक्सेसफुल –डॉक्टर ने कहा   
व्हाट्स एप मैसेज चारों दिशाओं में गया
देखते ही देखते उसके मोबाइल पर
शुभकामनाओं की अबाबीलें चिंचियाती हुई
इधर –उधर मंडराने लगीं
रसभरे वायवी केकों से मोबाइल स्क्रीन चिपचिपा उठा
उसने सही मौका समझ हल्की सी  किलकारी भरी:
तमाम आत्मीय झिडकियां निजी हलकों से तुरंत लपकीं  
बिना हिले डुले चुपचाप पड़े रहो भोंदू
चिल्ल –पापा- चिल्ल.

उस दिन शुक्रवार या शनिवार अथवा इतवार  
या उस जैसा कोई दिन रहा होगा  
जब वह वॉकर के जरिये इधर से उधर रेंगा
उसी तरह जैसे आठ या सोलह पैर वाला तिलचट्टा
एकबारगी उलट जाने पर 
तमाम कोशिशों के बाद ही सीधा  चलता है
बेढंगी चाल ही हमारे अहद की सनातन गति है.

अब वह डरता ठिठकता सहमता चलता है
मन ही मन रीझता है
चलो जी तमाम तोड़ -फोड़ ; चीर -फाड़ के बाद ही सही
आख़िरकार वह चलने  तो लगा
अब जो हुआ सो हुआ ,अच्छा ही हुआ, हुआ ही होगा.
 













मेरे होने और न होने के बीच



मैं जा रहा अकेला कुछ बुदबुदाता हुआ
न ..न .. कोई दुआ नहीं
न किसी फर्जी उम्मीद की मुनादी  
उसमें जो था
समझ से ज़रा फासले पर रहा  
दिल को बहलाने को तब मैंने शायद
अजब भाषाई ढोंग रच लिया.

मेरे पास अरसे से
कहने –सुनने को कुछ खास  नहीं
बासी शब्दों से कोई क्या रचे
उनसे रची इबारत में से तो
आती है वनैली गंध
अभिव्यक्ति के सिर पर
उग आये हैं नुकीले सींग.

हमारे समय के कवि के पास
कविताओं के बजाये  जटिल पहेलियां  हैं
जग को भरमाने के लिए
कृत्रिम शब्दावली
वे कुछ भी लिखने से पहले
कलम की आड़ में मुंह छुपा लेते हैं.
उनकी बेहयाई कालजयी है.

लिखना पढ़ना उनके लिए ऐसा
खुद को जिंदा बताने के लिए
गहरी नींद में पलक झपकाना
बताते चलना देश दुनिया को
हम इस ठहरे समय में निठल्ले नहीं 
कुछ न कुछ कर तो रहे यकीनन.

सब ठीक है ,ठीक-ठाक है लगभग
इसी होने ,न होने के बीच
सिर्फ निरर्थक बहस मुबाहिसे हैं
चंद फैशनेबल जुमले
कुछ खोखले लफ्ज़
चतुदिक वैचारिक घपले हैं.











मोची राम

छुट्टियों में घर आए बेटे

बेटे छुट्टियाँ पर घर आ रहे हैं ठण्ड उतरा रही है माहौल में   धीरे-धीरे खबर है , अभयारण्य में शुरू हो चली है लाल गर्दन वाले बगुलों की आम...