मंगलवार, 14 नवंबर 2017

खोया -पाया


मुझे आज अलस्सुबह
पुराने दस्तावजों के बीच
एक जर्द कागज मिला
दर्ज थी उस पर
सब्ज रंग की आधी अधूरी इबारत
वह प्रेमपगी कविता नहीं थी, शायद
या हो ,क्या पता
मेरा वजूद चन्दन सा महकने लगा।
एक के बाद एक
तरह तरह की चीज मिलती गयीं
खोये पाए का सिलसिला चला
धूल में अंटी बांसुरी मिली
उसके नीचे दबी थी स्वरलिपि
फूंक से गर्द को बुहारा
स्मृति के वर्षावन में बज उठी अचीन्ही सिम्फनी.
गुलेल मिली तो उसे उठा
छुपा लिया अपनी पीठ के पीछे
मरी हुई चिड़िया के रक्त सने पंख मिले
उसे उठा डायरी में दबा लिया
आदिम क्रूरताएँ कागजी कब्रगाहों में पनाह पाती हैं.
कुलमिला कर आज जो कुछ मिला
वह तो कभी खोया ही न था.
आंगन में लगे गुलमोहर के लाल फूल
देर तक खोजे तो न मिले
वह रूठ कर अलविदा हुआ
ले गया सारे रंग अपने साथ
सूखी हुई पत्तियां मिलीं
उन्हें बटोर कर हथेली पर रखा
एक दिन ये उड़ेंगे
सूखे हुए ठूंठ के इर्द गिर्द
बहुरंगी तितलियां बनकर.
अलस्सुबह खुद को खूब तलाशा
मैं तो नहीं हुआ बरामद
मिले मेंरे होने के अपुष्ट सुबूत
यत्र तत्र बिखरे हुए
मुड़ी तुड़ी जंग खायी चाभियों के गुच्छे की तरह
ताले को लेकर कोई उत्सुकता नहीं
वह हो तो क्या ,न हो तो भी.
छाया:हरि जोशी 

मोची राम

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