शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

वक्त का बाइस्कोप

 




  


मुझे अच्छी तरह से याद है

वह भरे जाड़े के बीच एक गुनगुनी शाम थी

उस दिन मुझे मिले थे चमचमाते जूते

जिन्हें मैंने अनहोनी के गहने की तरह

दुबका लिया मिलट्री वाले काले कंबल की तह में

और तय किया कि खाली हुए दफ़्ती के डिब्बे से बनाऊँगा

एक दिन एक बाइस्कोप

यह उन दिनों की बात है जब फिल्में

अपने खामोश दिनों को इतिहास की अलगनी पर रख

वाचाल होने की जल्दबाजी में थीं।

 

मैंने घर में पड़ी चिकने कागज पर छपी   

रद्दी पत्रिकाओं में से तमाम रंगीन चित्रों को  

ढूंढ-ढूँढ कर सलीके से कतर लिया  

जलते हुए चूल्हे पर सिकती रोटी की छवि को

खुले हुए रेफरिजेटर से झाँकते रंगबिरंगे ठंडे फलों की आभा को

हल चलाते किसान के चेहरे पर चुहचहाते पसीने के लवण को

जल भरे मटके को बगल में दबा कर जाती युवती के संकोच को

और न जाने कितनी आकृति, कितने स्वरूप सहेज लिए।

 

 

इसके बाद बड़े जतन से मैंने मैदे से लेई बनाई

तस्वीरों को जोड़ दृश्य रचे  

उन कतरनों से चंद कहानियाँ

और कुछ अनकहे किस्से आगे बढ़े

दफ़्ती के डिब्बे में आयताकार परदा बना

दोनों तरह सरकंडे लगा दृश्यावली लपेटी

किस्से सरकने शुरू हुए ,सरकते गए

बेआवाज़ कल्पना ऊंची उड़ान पर जा निकली।

 

मुझे अच्छी तरह से याद है

उस बाइस्कोप ने आगे चल कर

न जाने कितने स्पर्श के जादू रचे

न जाने कितने वयस्क गोपन संसार के रहस्य खोले

न जाने कितने अराजक अफ़साने गढ़े।

 

दिन बीत गए , बीतते गए

स्मृति में बाइस्कोप की रील जब तब

जड़ता का अतिक्रमण कर स्वत: सरकने लगती है

समय बीत जाने के बावजूद व्यतीत कहाँ हुआ

लगता है वक्त भले रीत गया

मन की सतह पर नीला थोथा मिली लेई से चिपकी यादें 

वर्तमान के बाइस्कोप के भीतर कठपुतली सी

जब- तब थिरक उठती हैं।

 

 

 

 

 

 

 

मोची राम

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