रविवार, 22 नवंबर 2020

वक्त की रेत

 

मेरी उधड़ी हुई जेब में है

उदासी ही उदासी

कालातीत दुर्लभ।


मेरी बंद मुट्ठी में भरी है

सिर्फ़ रेत ही रेत

रेतघड़ी वाले वक्त से

उसका कोई लेना देना नहीं।

 

मेरे भीतर की खोह में है

वनैली मुस्कान का बसेरा है 

इच्छाओं के रक्तरंजित सफ़े

पलक झपकते पलटते हैं।


समय पर ठहरी देह  

हौले-हौले

बेआवाज़ व्यतीत हुई जाती है।

 

बीतता वक्त

 


प्यार को लेकर सदा संशय रहा

प्रार्थना के लिए न मिले उपयुक्त शब्द

उधार लिया आनन्द कब रीता पता न चला

साइकिल चलाना सीखते सीखते

हैडल से हाथ हटा देखने लगा

पता नहीं कब अजब अश्लील सपने.

 

बचपन उहापोह में बीता

कैशोर्य आशंकाओं में व्यतीत हुआ

जवानी रीती मायूसी  में

कहीं कुछ उल्लेखनीय  न घटित हुआ

अपना नाम ऐसे उच्चारा 

किसी दुर्दांत अपराधी का नाम लिया.

 

जीवन की सांध्य बेला  में

भावुकता का आग्रह है कि

बीते वक्त को तिलांजलि दे

बंधुजनों से कहा जाये

जाओ लौट जाओ अपने अकेलेपन में

चलो, हम ख़ुद से देर तक बतियायें.

 

बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

मेज़ पर रखा सफ़ेद हाथी

 


लिखने की मेज़ पर सफ़ेद हाथी है

उसके हौदे पर उगा है

हरेभरे पत्तों वाला मनीप्लांट

वह तिरछी आँखों से देख रहा

उँगलियों से उगते कविता के कुकरमत्ते

जल्द ही यहाँ उदासी की फ़सल पनपेगी.

 

गुलाबी फ्रॉक पहने एक लड़की टहलती चली आती है

रोज़ाना मेरी  बोसीदा स्मृति  के आसपास

मैं उसका नाम लिए  बिना

पूरी शिद्दत से उसे पुकारता  हूँ

वह देखते ही देखते तब्दील हो जाती है

किताब के पन्नों के बीच  रखे बुकमार्क में.

 

मेरे इर्दगिर्द न जाने क्या क्या है

प्यार की दीगर स्मृति जैसा कुछ

कभी किसी उदास उचाट दिन

कागज पर खींची  बेतरतीब लकीरों का ज़खीरा

ख़ुद को याद दिलाते रहने  के लिए

कूटभाषा में यहाँ वहां दर्ज़ चंद हिदायतें.

 

कोई समझा रहा

मेज पर हाथी पर सवार मनीप्लांट नहीं

लकी बैम्बू सजाओ या

जेड प्लांट या शमी का पौधा लगा लो

या  घोड़े के नाल के आकार वाले  पेपरवेट के नीचे  

अपना मुकद्दर  दबा  कर रख लो.

 

लेपटॉप के भीतर रखे पन्ने

भूल चुके  हैं हवा में फड़फड़ाना

उसमें सहेज कर रखी किताबें

कब करप्ट हो जाएँ,पता नहीं

मेज पर रखा सफ़ेद हाथी बिना हिलेडुले

शरारती  बच्चे सा हौले से हंसता है.

 

 

 

 

 

शनिवार, 10 अक्तूबर 2020

मेरे पास...

 
मेरे पास छोटे छोटे सपने हैं 

या कहूँ बेतरतीब ख्वाहिशें 

इनके पीछे पीछे दौड़ते

मन तो नहीं भरा

भर आईं पिंडलियाँ

देह में खिंची रहती हैं सीमा रेखाएं.

 

मेरे पास उमंग है

या कहूँ दीवानापन

इसने कभी थकने न दिया

पूरी शिद्दत के साथ जिया

जीने का कोई तयशुदा

प्रारूप नहीं था फिर भी.

 

मेरे पास उतावलापन है

या कहूँ अधैर्य

धीमी राफ्तार वाला घटनाक्रम

खीझ से भर देता है

फास्ट फॉरवर्ड मोड में

आती हैं फर्जी तसल्लियाँ .

 

मेरे पास उत्सुकता है

या कहूँ उम्मीद के चंद कतरे

इनके जरिये कुछ नहीं होता

निराधार बतकही के अलावा

बंद कमरे में बहसियाते कापुरुष

क्रांति के सूत्रधार नहीं बनते.

 

मेरे पास घटाटोप अधेरा हैं

या कहूँ चकमक पत्थर

जिसमें चमक का उठना निश्चित है

अँधेरा जितना सघन होगा

रौशनी उतनी अधिक होगी

कालिमा देर तक नहीं टिकती.

 

मेरे कोई निजी एजेंडा नहीं

या कहूँ खामोख्याली

मेरे भीतर कोई अजायबघर नहीं

न उसमें सजाने लायक कोई स्मृति चिन्ह

मूर्खताओं को ऐतिहासिक कह उन्हें संरक्षित करना

मसखरेपन के सिवा  कुछ भी नहीं .

++++

 




गुरुवार, 3 सितंबर 2020

पापाजी नहीं रहे


 सुबह का वक्त था

वह ग्राहक के लिए जल्दी जल्दी

सामानों की पुड़िया बाँध रहे

बीच बीच में पूछते जाते ...और

लिखते जाते चीकट कागज पर सारा हिसाब

उन्होंने पेन्सिल को अपने कान के पीछे खोंसा

ऊपर गर्दन उठाते मुझे देखा, कहा –हाँ भईया.

 

मेरे पास देने को एक मनहूस खबर थी

कहा- ताऊजी पापाजी नहीं रहे

सुनते ही वह एकदम धप्प से फर्श पर उकडू बैठ गये

कब-उनका मुख खुला तो उन्होंने शायद पूछना चाहा

कब तक ले जाओगे, लेकिन पूछ ली यह बात

वह तो मुझसे पूरे चार बरस छोटा था

कोई दिक्कत महसूस हो तो कहना

उन्होंने एक दुकानदार की सी दुनियादारी वाली बात

एक एक लफ्ज़ तोलते शायद बहुत सम्भाल कर कही.

 

वापस जाने को मुड़ा तो उन्होंने कहा

भईये ज़रा रेडियो मिस्त्री को भी बताते जाना

दोनों की न जाने कितनी शामें

बर्मा में हुई भीषण जंग की तफ़सील बयाँ करते करते बीती

उनका अतीत परछाई की तरह साथ चला

मैंने उन तक जब शोक संदेश पहुँचाया

वह कोई खराब हुआ रेडियो सुधारने में लगे थे

सूचना सुनी तो उन्होंने पेचकस हवा में लहराया

इतना जीदार बंदा ऐसे कैसे मर सकता है-चुपचाप.

 

मैं साइकिल को तेजी से भगाता हर उस जगह गया

जहाँ उनके नज़दीकी दोस्तों के मिलने की उम्मीद थी

वह कहते थे-गुजर जाऊं तो उन लोगों को जरूर खबर दे आना

जिन्हें तेरी माँ सदा लफंगा समझती रही

वही तेरे काँधे का बोझ थोड़ा बहुत हल्का करेंगे

बाक़ी यदि आये तो आये ; न आये तो भी क्या

मेरे उस एमएलए मित्र को तो भनक भी लगने देना

आएगा तो बिला वजह तरह-तरह के कौतुक करेगा.

बेटा –ये सफ़ेदपोश किसी मर्ज की दवा नहीं होते.

 

ये लफंगे ही होते हैं जिंदगी के साथ भी

काम के साबित होते हैं जिंदगी के बाद भी,

तब यह कह वह जोर से हंसे थे

मेरे पिता इस तरह शायद ही पहले कभी हँसे हों  

शोक की घड़ी में उनका चेहरा कनखियों से देखा

लगा कि वह अपने ख़ास अंदाज़ में मुझे या

अपने दोस्तों को या मौत को मुंह चिढ़ा रहे हैं.

 

सोमवार, 31 अगस्त 2020

समय की बोधकथा


प्रत्येक वाक्य  आजाद कर दो

लफ्ज़ और लफ्ज़ के बीच बने सारे सेतु

भरभरा कर ढह जाने दो

बच्चों को खेलने के लिए दे दो

कविताओं के सारे आधे- अधूरे वाक्य

गिलहरियों को मवेशी बाँधने वाली जंजीरों में न बांधो.

 

बगीचे में आज भी चली आई चितकबरी तितली

सदाबहार फूलों का मकरंद पाने की लालसा लिए

वह कई दिनों से आती जाती लगातार

चली गई उड़ते-उड़ते काल के आरपार

गंध ही उसकी दिशा

सदियों से है जिंदा रहने की जिद लिए.

 

बरसात की अराजक हरियाली में

शर्मीली चिड़ियाँ दिन भर रचाती रास

आसमानी बूंदों की मादक आवाज़ में आवाज़ मिला

चहचाहट की कूटभाषा में करती परस्पर प्रणय निवेदन

तिनका-तिनका जोड़ बनाती घोसला

घर बनाने का कौशल ही दरअसल प्रेम का इज़हार है.

 

एक दिन ऐसा आएगा शायद

जब आसमान जल भरे काले मेघों से अंटा होगा

तेज हवाएं उड़ा ले जाना चाहेंगी

तमाम तरह के आर्द्र सपने

घर भले ही तिनका तिनका हो जाये

नींद की परिधि के बाहर सपनों के मोहल्ले फिर भी रहेंगे.

 

एक न एक दिन सारी संज्ञायें मिट जाएँगी

सर्वनाम फिर भी बचे रहेंगे

विशेषण जहाँ तहां चमगादड़ की तरह उलटे लटके मिलेंगे

भुतही हवेलियां रोज रक्तरंजित कथाओं का पुनर्पाठ करेंगी

वर्तमान के नेपथ्य में सिर्फ धुंध ही धुंध भरी होगी

तब इतिहास की किताबों में मनेगा कागजी उत्सव.

 

वक्त जैसे बीतता है व्यतीत होने दो

चुपचाप देखते रहो रिक्तता से भरे

प्रज्ञा के पागलखाने की दीवारों को

सुन पाओ तो कान लगा कर सुन लो  

तर्क की कसौटी पर ठिठकी ठहरी

समय की व्यर्थता भरी बोधकथा.

 

 

 

 

  

 

 

गुरुवार, 27 अगस्त 2020

एक निठल्ली दोपहर में लिखा कविता जैसा कुछ


कविता इसलिए भा गयी

इसमें विराम अर्धविराम या

ऐसे ही किसी अंडबंड चिन्ह को लगाने की

कोई बाध्यता न थी

शब्दों की चंट गिलहरियों को आज़ादी

वे किसी भी भाव को कुतरते

उम्मीद भरी मनचाही फुनगी तक जा

देर तक उस पर ठहरी रहे

 

बंध कर रहना कभी हो न सका

पंख कतर दे या उन्हें बांध दे या  

बड़े हवादार पिंजरे में रख छोड़े

उड़ना सम्भव न हुआ तब भी

पंख फडफडाना कभी न रुका

ज़िन्दगी भर जो किया

हमेशा अशर्त आवेग में किया

 

प्यार जैसे लफ्ज़ को लेकर

मन सदा सशंकित रहा

इसका वजूद ऐसा जैसे

अदृश्य परवरदिगार की उपस्थिति का विभ्रम

जैसे दूरस्थ इलाके से उठती

सामूहिक विलाप की लयबद्ध आवाजें

जैसे सदियों से उदास लड़की का

गहरी नींद में अचानक मुस्करा उठना

 

कभी कभी लगता है

मेरे पास से होकर कोई हमशक्ल गुजर गया

किसी ने मुझे बहुत धीरे से छुआ

किसी ने लगभग नि:शब्द पूछ लिया

बताओ , इस बार सफर कैसा रहा हमसफ़र

अबकी बार हर साँस के साथ

ख़ुद की शिनाख्त में कितनी एहतियात बरती.

 

अब जबकि दिन ढलने को हुआ

मन चाहता है कि ख़ामोशी टंकी चादर पर

पैरों को पसार कोलाहलपूर्ण सपने देखते

जी ली जाये बड़ी तसल्ली के साथ

एक हैरतअंगेज गहरी नींद

जिसके टूट जाने का कोई खतरा न हो.

 

 

मोची राम

छुट्टियों में घर आए बेटे

बेटे छुट्टियाँ पर घर आ रहे हैं ठण्ड उतरा रही है माहौल में   धीरे-धीरे खबर है , अभयारण्य में शुरू हो चली है लाल गर्दन वाले बगुलों की आम...