शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

सरकंडे की कुर्सी पर

सुबह सरकंडे की कुर्सी पर बैठ कर वह
एक एक वनस्पति को निरखता  
माली के आने की
बड़ी बेसब्री से बाट जोहता 
वह मौसम से अधिक
माली की खुरपी में यकीन करता है.

सुबह सरकंडे की कुर्सी पर बैठ कर 
अपने जिन्दा बचे रहने का जश्न मनाता
गुलमोहर की जहाँ तहां फैली पत्तियों पर
गुस्से में आँखे तरेरता 
उसके इस तरह कद्दावर हो जाने को 
अपनी हेठी समझता है.


सुबह सरकंडे की कुर्सी पर बैठ कर 
पेड़ों पर डेरा जमाए परिंदों से
रोज पूछना चाहता है 
वे नीले आसमान में 
क्यों नहीं उड़ान भरते ?
क्यों  बैठे ठाले ठिठोली करते हैं.

सुबह सरकंडे की कुर्सी पर बैठ कर 
अपनी हथेलियों को परखता
लगातार कोशिश करता है
भविष्य का अंदाज़ा लगाने की  
वक्त उसकी हथेली से  रेत की तरह
बिखरता  जाता है धीरे धीरे.

सुबह सरकंडे की कुर्सी पर बैठ कर 
पकड़ना चाहता  है अकेलेपन के भीतर
फर्जी तसल्लियों के
तितलियों जैसे सुबूतों  को
बहुरंगी उड़ानों का
होता है निजता भरा  आसमान.

सुबह सरकंडे की कुर्सी पर बैठ कर वह  
स्थगित कर देता है खुद को
कुर्सी उसकी गैर मौजूदगी में
हिलती है हौले -हौले  
माली बगीचे में लगी फफूंद को  
खुरचता है अपने खुट्टल नाखूनों से.

सुबह सरकंडे की कुर्सी पर बैठ कर वह
किसी पर एतबार नहीं करता
न इंतजार जैसा कुछ
उसे खुरपी का अता पता नहीं
माली दबे पाँव आकर चला जाता है
उसकी ऊब में खलल डाले बिना.

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मोची राम

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