बुधवार, 29 अगस्त 2018

बीतती हुई जिन्दगी



बीतते जाते हैं दिन बड़े सलीके से
नींद को टेरते गुजरती है
युगों लम्बी तमाम रातें
आदिम घड़ियां बेवजह टिकटकाती हैं
समय का पेंडुलम डोलता है.
लगभग बेवजह.

कहीं पहुँचने की जल्दबाजी नहीं
न किसी को आँख भर देख लेने का दीवानापन  
सब कुछ चलता तयशुदा तरीके से
उबासी भी ज़रा एहतियात से लेते
ताज़ा जिल्दबंधी किताब की तरह
यादों के सफ़े दबे हैं वजनी वक्त के नीचे.

पलक झपकते सपने आते –जाते
मन के भीतर कोई रंग न उतरा
किसी को बेसाख्ता पुकारते हुए जी कतरा जाए
अतीत के अरण्य में
भूली बिसरी यादों के सूखे पत्ते तक न खडखडाये
आदमी रोबोट हुआ मानो.

बोसीदा दीवार पर टंगा कैलेंडर थरथराता  है
कुछ है जो तारीख की मुट्ठी से
फ़िसल रहा है आहिस्ता आहिस्ता
उम्र की रेत चुपचाप उड़ती है
किसी बिंदास हसीना के दुपट्टे की तरह.











रविवार, 26 अगस्त 2018

कवि इस तरह क्यों हंसा


वह गहरी उदासी के बीच
अनायास निहायत बेहूदा तरीके से हंस पड़ा
फिर देर तक सोचता रहा
क्या किसी अनहोनी के फर्जी अंदेशे पर हंसा या 
साइकिल चलाना सीखती बच्ची के 
बेसख्ता पक्की सडक पर गिर पड़ने पर हंसा
हंसा इसलिए कि इसकी कोई वजह न थी
एक बात तय है कि
किसी षड्यंत्र के तहत उसने यह न किया होगा.

कवि के लिए हंसना या रोना कभी सहज नहीं होता
उदास बने रहना ऐसा ही है
जैसे कागज पर अक्षरों जैसे चील कौए उड़ाने से पहले 
पेन्सिल की नोक को  सलीके से नोकदार बनाना
लिखने लायक रूपक को बटोर लेना
अनुमान है कि उसका  हंसना 
घनीभूत अवसाद में महज़ बुदबुदाना रहा होगा.

वैसे कायदा तो यह था
उसे  हंसना ही था तो
भीतर ही भीतर चुपचाप हंस लेता
जैसे अमूमन गम गुस्से या गहन आनंद को
धीरे –धीरे अपने अंदर घोलता हैं.
जैसे बिना ध्वनि का इस्तेमाल किये
करता  हैं संवाद
मंथर गति से बहती हवाओं से
फूल की सुगंध और रंग से
परिंदों की परवाज़ से.

कवि होने का यह मतलब नहीं 
कुछ  भी कर बैठें खुलेआम
लिखना लिखाना  हो 
मुफ़्त में यहाँ वहाँ से मिली डायरी के पन्नों पर लिखे 
बेहतर यही कि मन ही मन करें यह फिजूल काम 
समझ ले
बेवजह हंसी का फलक बड़ा धारदार होता है 
इससे कौन कितना आहत हो उठे 
यह बात ठीक से कोई नहीं जानता  . 







बुधवार, 22 अगस्त 2018

एक बार की बात

एक बार की बात है

एक दरख़्त की डाल पर
लकड़हारे की कुल्हाड़ी चली
परिंदों से छिने उनके घरबार
बिना खिले फूल मिट्टी में जा मिले
फलित सम्भावनाये नदारद  हुई
हरियाली की सौगात लिए
आती बादलों की कतार
लौट गयी उलटे  पांव

एक बार की बात है
आदमी ने सीख ली
कद्दावर दरख्तों को
फर्नीचर  में बदलने की तकनीक
पेड़ों की जान ही सांसत में फंसी
अब कुर्सियों ही कुर्सियां है चारो ओर
मेज पर रखे गुलदान में सजते हैं
प्लास्टिक के निर्गन्ध फूल।

एक बार की बात है
लकड़ी के व्यपारी ले आये स्वचालित आरे
लकड़हारे काटने लगे लकड़ी
जंगल के जंगल गायब हुए
अब बयार तितली फूल रंग सुगंध की बात कौन करे ।

एक बार की बात है
यह आजकल की वारदात है
हरतरफ वनैली गन्ध फैली
हिंस्र आदमियत ने ओढ़ लिए  
शातिर मुखौटे
अब वे बतियाते नहीं गुर्राते हैं।

एक बार की बात है
देखते ही देखते हरियाली रक्ताभ हुई
परिंदों के कण्ठ में बसी
मधुरिम स्वर लहरी गुम  हुई
चन्द मसखरे बचे हैं
अपनी ढपली पर बजाते
तरक्की के बेसुरे राग।

एक बार की बात है
न कहने लायक कुछ बचा
न सुनने को उत्सुक कोई रहा
यह रोजमर्रा की बात है.

मोची राम

छुट्टियों में घर आए बेटे

बेटे छुट्टियाँ पर घर आ रहे हैं ठण्ड उतरा रही है माहौल में   धीरे-धीरे खबर है , अभयारण्य में शुरू हो चली है लाल गर्दन वाले बगुलों की आम...