शनिवार, 3 सितंबर 2016

साठ पार का आदमी


साठ पार के आदमी को
घुटने मोड़ कर चारपाई पर बैठे रहना चाहिए
उठते बैठते हर बार
जोर से कराहना चाहिए
फूल तितली खुशबु और प्यार की बात
मन ही मन बुद्बुदाना निषेध है. .

उसे अतीत की चादर को कस कर जिस्म से
हरदम लपेटे रहना चाहिए
उसकी देह से पसीने और उदासी की गंध
हर समय आनी चाहिए
गमन की भविष्यवाणी करनी चाहिए
रोज मौसम विभाग की तरह.

उसे अपने अंतिम क्षणों का रिहर्सल
नियमित रूप से करना चाहिए
लोगों को हरदम यकीन दिलाना चाहिए
कि बस कुछेक दिन की बात और है
उसे करनी चाहिए
 
जीने से अधिक
सिर्फ मरने की फ़िक्र.

उसे हर उबासी के साथ दोहराना चाहिए
प्रभु बहुत हुआ अब तो उठा ही ले
फिर सहमते हुए आसमान की ओर देखना चाहिए
कहीं आसमान के कान तो नहीं उग आये
प्रार्थनाओं को करते हुए
इस कदर जल्दबाज़ी करना ठीक नहीं.

साठ की दहलीज लांघते हुए
जोड़ घटा का अंकगणित भूल जाना चाहिए
जिस्म को छोड़ देना चाहिए अकेला
हर बात पर बेबसी की नुमाइश करते हुए
इस तरह हंसना चाहिए
कि वजह का सुराग तक किसी को न मिले.

साठ पार के आदमी को
कायदे से तो किसी कौए की तरह
उतर जाना चाहिए निर्जन बियाबान में
जहाँ आवाजें खो जाती हों
द्रुम लताओं की गहराइयों में
पत्तियां हवा के झोंकें में भी सरसराती न हो.

साठ पार गया आदमी
कोई अलार्म घड़ी नहीं रखता
 
यदि होती भी है तो
वह उसके जाग जाने के बाद बजती है
कलगी वाला मुर्गा बांग देने के मामले में
उससे रोज हार जाता है.
उसके हर कथोपकथन में होती हैं
निजी जीवन से जुड़ी
 
झूठ से लबरेज शौर्य गाथाएं
जिनका पुनर्पाठ करते
वह कभी नहीं थकता
कंठस्थ कर लेता है.

साठोत्तर का आदमी
दरअसल बड़ा शातिर होता है
उम्र भर एकत्रित की गयी चालाकियों का
बखूबी इस्तेमाल करता है
हर जरूरी गैर जरूरी बात पर
बेवजह बेआवाज़ सुबकता है.
वह बड़ी शिद्दत से
वक्त के सरोंते से
काट पाता है एक एक दिन को
कठा सुपारी की तरह.

अपना पूरा नाम और
असल उम्र बताने में हकलाता है.
साठ पार का आदमी वक्त रहते
निश्ब्द्ता के आरपार चला जाना चाहता है.


गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

कबाड़खाने में


किताबों के ढेर में से
अपने लिए एक अदद किताब ढूंढना
वैसा ही है जैसे
कलकल कर बहती नदी में से
चुल्लू भर निर्मल जल
भर लेने की हठ करना.

जहाँ तहां कागज के पुर्जों पर लिखी 
कविताओं में से
एकाध आधी अधूरी पंक्ति
तलाश लेना भी वैसा ही है
जैसे पा जाना
अपनी आत्ममुग्धता के लिए  
कोई भूला बिसरा टोटका.

मन के सघन वर्षावन में
रोज उगते हैं अनगिन
नीले पीले बैंगनी फूल
मादकता का नया मुहावरा गढ़ते
कंटीले अहसास के साथ
स्मृतियों को लहूलुहान करते.

वक्त की हथेली से झड़ रही है उम्र  
बेआवाज़ बेसाख्ता 
कामनाएं मौजूद हैं देह में
पूरी ढिठाई  के साथ
समय सिद्ध नुस्खों की पाण्डुलिपि के
जर्जर पन्नों  को  पलटती.

वक्त  के कबाड़खाने में
सीलन है ,अँधेरा है
ठण्डक है ,आद्रता है  
शरीर में झुरझुरी पैदा करती.
ऐसे में हो जाती हैं अक्सर
पढ़ी लिखी बातें बेकार.

शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

माँ को याद करते हुए ..................


उस रात जब अँधेरा बहुत घना था
मौसम ज़रा गुनगुना  
माँ ने अपने सर्द हाथों में थाम
मेरे हाथ को कहा  
अरे तू तो तप रहा है भट्टी सा
उसके यह लफ्ज़ मेरे कान तक पहुंचे
और बिखर गये आँखों से
पिघलते आइसक्यूब की तरह पानी बन कर.

उस रात पहली बार उसने कहा
सरका दो खिडकियों पर लगे मोटे परदे
मैं देखना चाहती हूँ कालिमा में भी 
बगीचे में खिले वासंती फूलों की आभा
आसमान में तिरते खूबसूरत पंछी
और परस्पर उड़ान की होड़ में लगी
बहुरंगी पतंगों का तिलिस्म.

उस रात उसके कहते ही
खिडकियों के पट चौपट खुल गये
रोशनदान के लाल पीले नीले कांच से छनकर
फुदकने लगा चांदनी  का रूपहला छौना
उसकी चारपाई पर बिछी चादर की सिलवटों पर
पूरा कमरा भर गया मौसमी फलों की सुवास से.

उस रात उसने कहा
जा जल्दी ले आ थोड़े से लौकाट मेरे लिए
बड़ी भूख लगी है मुझे
तेरे पिता होते  ले आते
लाहौर वाले क़ादिर के बाग़  से
रुमाल में बाँध रस से चुह्चुहाते फल.

उस रात माँ देखती रही सघन अँधेरे में
रोशन उम्मीदों के सपने खुली आँखों   
बाट जोहती मेरे पिता की
प्रेमपगे उलहानों के  साथ  
पूछती रही मुझसे निरंतर
क्या रेडियो पर आनी बंद हुई युद्ध की खबरें
क्या आज भी डाकिया नहीं लाया
उनकी कोई खोज खबर.


उस रात वह अचानक चली गयी
मेरे हाथों में सौंप
अपनी यादों और इंतजार की अकूत विरासत
अँधेरे और रोशनी के आरपार
मैं उसके ठंडे हाथों को
अपनी रूह में सम्भाले रोज पूछता हूँ.  
क़ादिर के बाग़ का पता.






मोची राम

छुट्टियों में घर आए बेटे

बेटे छुट्टियाँ पर घर आ रहे हैं ठण्ड उतरा रही है माहौल में   धीरे-धीरे खबर है , अभयारण्य में शुरू हो चली है लाल गर्दन वाले बगुलों की आम...