सोमवार, 29 जून 2020

यह जानना हो तो

हंसना क्या होता है
यह जानना हो तो
किसी मसखरे से पूछो
बाकी लोग तो बस
यूँही हँस लिया करते हैं .
मुस्कान की थाह लेनी है
तो उस रिसेप्शनिस्ट से जानें
जिसके जबडों में
मुस्कराते रहने की जद्दोजेहद में
गठिया हो जाता है .
नग्नता का मर्म जानना है
तो उस कैबरे डांसर से पता करें
जिसे ठीक से तन ढकने की मोहलत
घर के बंद दरवाजों के पीछे
कभी कभार ही मिलती है .
मौन की भाषा को जानना है
तो झांक लो
उन लाचार आँखों में
जिन्होंने अभी तक हर हाल में
सच बोलने की जिद नहीं छोड़ी है .
कविता का मर्म जानना हो
तो उसे कागजों से निकाल
रूह तक ले जाओ
कविता की मासूम भाषा में
उम्मीद अभी तक जिन्दा है .
जिंदगी का मर्म जानना है
तो मौत की दहलीज़ तक ठहल आओ
इसे ऐसे सपने की तरह जियो
जो कच्ची नींद में टूट भी जाये
पर मन मायूस न हो .
नए शब्द नए भावार्थ गढते हुए
सब खुद –ब –खुद पता चलता है
किसी से कुछ मत पूछो
बहती नदी की गति को
तस्दीक की जरूरत नहींJ

गुरुवार, 18 जून 2020

आषाढ़ की तपती दोपहरी में लिखी कविता

दर्द याद रहता है 
ख़ुशी गुम हो जाती है
दंश विस्मृत नहीं होता
स्पर्श में से बचा रह जाता है
उतना हिस्सा
जो रह जाता है उँगलियों पर चिपक कर।
भूख अमाशय में रहती है
जिह्वा पर उड़ती है स्वाद की तितली
खाली पेट तमाम कोशिशों के बावजूद
मुनादी वाले नगाड़े सा नहीं बजता
तृप्ति एक फर्जी व्यंजना है
कविता के कूड़ेदान में पड़ी जूठन.
सच की बात करते करते
झूठमूठ चेहरे पर ओढ़नी पड़ती है उदासी
अपनापन खोजता आदमी अक्सर
निकल पड़ता है अंतरांध यात्रा पर
यात्रायें जो कभी नहीं थमतीं
जिनमें गति सदा संदिग्ध रही.
आषाढ़ के महीने में याद रहती है
ज्येष्ठ की भरपूर दोपहरी
टोंटी वाले घड़े से रिसता है
हमारे समय का सादा पानी
अलसाये हुए धूपिया वक्त में
पसीने में लथपथ कोई याद नहीं आती.
लोक कथाओं वाला प्यासा कौआ
अब क्यों नहीं आ बैठता घर की मुंडेर पर
उसकी चोंच में अब कोई पत्थर नहीं दिखता
हर हाल में ठंडे जल में
चोंच डुबा देने की उसकी चतुराई क्या हुई
उपस्थिति जताने वह बार बार क्यों नहीं आता.
तपते हुए जानलेवा दिनों में बचे
तो हम भी लम्बी ठण्ड भरी रातों में
बच्चों को सुनायेंगे
हंसते हँसाते जिंदा बच निकलने के
कुछ अविश्वसनीय चुटकुले
कुछ नितांत कपोल कल्पित कथाएं.

एक कविता उस सनबर्ड के लिए जिसे मैंने हमिंग बर्ड समझा

मैं उसे हमिंग बर्ड समझता
महज पांच ग्राम की चिड़िया
जो जब तब मंडराती
सफ़ेद बैगनी सदाबहार के फूलों के इर्द गिर्द
कितनी चंट है यह नन्हीं सी जान जानती
यहाँ मकरंद बारामासी मिलेगा.

थोड़ा-सा वजन उड़ती जाये फरर्र
बिना किसी कोशिश उड़ान भरे
एक छोर से दूसरे छोर तक
इतनी भागदौड़ किसके लिए
कितनी तृष्णा, कितने आयाम
जो सदा रह जाये अतृप्त.

हमिंग बर्ड बड़ी भोली होती है
बताया एक बहेलिये ने
पिंजरा बड़ा हो तो उसे समझ लेती उपवन
टांग दो कृत्रिम फूलों के बीच शहद भरे ऐम्पोल
वह सरलता से उसे मान लेती पुष्प रस
रसास्वादन करती रहती मगन.

वह सीधी-सादी है पर बड़ी चटोरी है
उसकी दुनिया मधु से इतर नहीं
मैं जब गहरे असमंजस से भर उठा
तब अनायास पता लगा
यह हमिंग बर्ड नहीं देशज सनबर्ड है
जिसे उड़ना ही नहीं तीखी आवाज़ में गाना भी आता है.

हमिंग बर्ड सन बर्ड जैसी सिर्फ दिखती है
पर दोनों की है अलग-अलग दुनिया
पृथक पृथक आसमान
अपनी अपनी चहचाहट
उड़ान का निजी व्याकरण
उनके आवेग भी नितांत मौलिक हैं.

शुक्रवार, 12 जून 2020

साइकिल पर टंगी ढोलक



अलसभोर जा रहा साइकिल पर बांधे
सलीके से मढ़ी , हरी पीली ढोलकें
इसकी थाप पर सदियाँ गाती आईं
अपने समय के मंगलगान
जटिल समय में सवाल यह, कौन बजाये इसे
स्वछंद विचरते यम के दूतों के समक्ष.

शहरों में मुर्दे कतारों में हैं  
परिजन जिंदा बने रहने की ख्वाईश लिए
कनखियों से देखते ,उकताते कहते
अब मर तो गयी देह
अब कितना वक्त और लगेगा
इसके इहलोक से परलोक गमन में.

सड़क पर डंडा फटकारता सिपाही पूछ रहा
ए रे , तू कहाँ चला ढोलक लिए सवेरे सवेरे
जवाब आता, बच्चे भूखे बिलखते घर पर
सोचता , इनमें से एकाध बिक जाये तो
मेरे बच्चे भी थोड़ी देर मगन हो लें
भरे हुए पेट के साथ गाते बजाते.

वह कहता, अजी सिपाहीजी निकल जाने दो
क्या पता किसी गली-कूंचे  में
ढोलक के बिना अरसे से स्थगित हो
किसी जगह कोई क्वांरी उत्सवधर्मिता
बाट जोहती हो कदाचित जिद्दी स्वप्नजीवी
कायदे से मढ़ी हुई ढोलक की.

वक्त चाहे जितना भविष्य विरोधी हो
फिर भी कतिपय थाप
थिरकने को आतुर जनाना पाँव
कामनाओं की स्वर लहरी मौजूद  रहती है
अपने अपने किस्म के
समयानुकूल निर्द्वन्द निर्वात में.

साइकिल पर टंगी हरी पीली ढोलकें  
बड़ी जादुई हैं यकीनन
ये हैं थाप की संगीतमय उपस्थिति है
कुछ दिनों के लिए
रुखी सूखी रोटी का जुगाड़ है
बचीखुची जैसी –तैसी आस है.






रविवार, 7 जून 2020

रेहन पर बीमार बूढ़ा



एक बीमार बूढ़े के दोनों पैर बंधे हैं अस्पताल के पलंग से
वह इलाज़ का बिल चुकाए बिना कहीं देह से फ़रार न हो जाये
हाथ उसके आज़ाद हैं फिर भी
रीते हाथों को गुस्से में वह जितना चाहे उछाल ले 
मुंह से निकलती आवाज़ एकदम निरापद है
वह तटस्थता के दरम्यान सिर्फ गिडगिडाता  है.

वारिसों ने जीते जी उसे रख दिया है रेहन
मूल चुके तो वह मुक्त हो
ब्याज़ न पटा पाए तो भी क्या
वैश्विक वायरस के ख़िलाफ़
शोधार्थी उसे बना लेना चाहते हैं
गिनीपिग का जिंदा विकल्प.

उम्रदराज आदमी घर-परिवार के लिए
फालतू सामान भले ही हो   
उसके गुर्दे ,लीवर विभिन्न अंग प्रत्यंग बेशकीमती हैं
मरने को छोड़ दिया गया आदमी चतुर कारोबारियों के लिए
जिंदा रहने की जिद पर अडिग बंदे के मुकाबले 
हर हाल में बेहतरीन है.

अस्पताल के पलंग से बंधा लाचार बूढ़ा
हमारे समय की सम्वेदनशील मिसाल है
वह जब कभी यहाँ से आज़ाद होगा
तब भी आखिर कहाँ चला जायेगा
घूम-घूम कर करेगा दर्द का पुनर्पाठ
ऐसे उबाऊ वृतांत को आजकल कौन सुनता है.

तस्वीर में बीमार बूढ़े के चेहरे को
जानबूझ कर कर दिया गया धूमिल
प्रत्येक चेहरा बहुत मिलता -जुलता  होता है
और सच इसके सापेक्ष बड़ा हौलनाक
धुंधला दिया है चेहरा यह सोच 
लोग भयभीत न हो जाएँ अपना अक्स देख कर.




मोची राम

छुट्टियों में घर आए बेटे

बेटे छुट्टियाँ पर घर आ रहे हैं ठण्ड उतरा रही है माहौल में   धीरे-धीरे खबर है , अभयारण्य में शुरू हो चली है लाल गर्दन वाले बगुलों की आम...