महामारी के भीषण दिनों में
उन लोगों ने बातून नौनिहालों को जबरन सिखवाया
सिर्फ इशारों ही इशारों में
किसी मूक बघिर की सी संवाद शैली में
वक्त जरूरत हँसना रोना या फिर
कुछ इस तरह उदास हो लेना
कि एकाधिक निशब्द अर्थ ध्वनित हों.
बातून बच्चे मन मार कर
ऑनलाइन साइन लैंग्वेज सीखते गये
हाथों की यति से
बातें द्रुत गति से इधर से उधर होने लगीं
मां -बाप बच्चों की मेधा और
बच्चे की मूक बघिर होती काबिलियत पर
बेतरह रीझ उठे
घर के कोने कोने में शांति इस कदर पसरी
कि बालकॉनी में आ बैठने वाले परिंदे भी
मुंह खोलने से सिहरने से लगे
उन्होंने भी धीर्रे धीरे रच लिए
निपट मौन के चंद मनोवांछित कूट गीत
बस एक कठफोड़वा बची
करती रही दरख्त दर दरख्त
सदियों पुरानी खट-ख़ट.
साइन लैंग्वेज की ऑनलाइन क्लास चलती रही
बच्चा भूल गया अपना कोलाहल भरा बातूनीपन
वह सीख गया आँखों के जरिये
बड़ी से बड़ी इबारत को
आसानी से हवा में लिख देना
कानों को हिला-हिला कर
मन ही मन मुदित होने की गोपन कला
तंजिया मुस्कराना तो कभी
कुटिलता से खिलखिला उठने का
पेटबोले* का सा हुनर
महामारी के भयावह दिन
जैसे तैसे बीत गये
रीत चले आकंठ भरे खौफ् के घट
बस एक पूरी पीढ़ी गूंगी बहरी हो ली
भूल गयी वक्त-बेवक्त गुस्से से लाल-पीला होना
प्रतिकार में मुट्ठी भींचना
देर तक हाई डेसिबल पर चीखते रहना
उनके हाथ अब बड़े सलीके से
किसी न किसी की हिमायत में उठते हैं.
लगता है साइन लैंग्वेज ने
वक्त से जरा पहले
हमारे अहद के वाचाल बच्चों को
किस कदर शालीन
और ए आई ने उन्हें
किसी न किसी ब्रांड का
बहुपयोगी एलेक्सा सा बना दिया है.
*बिना होंठ हिलाए बोलने की कला को वेंट्रिलोक्विज़्म कहते हैं. ऐसे कलाकारों को देशज भाषा में पेटबोला.
निर्मल गुप्त , मेरठ