मंगलवार, 22 अगस्त 2017

आओ जुबान चलायें



मेरी देह पर हर उस जगह रिसते हुए घाव हैं
जहाँ मेरी थूक से लिथड़ी हुई जुबान को पहुंचना नहीं आता
जीभ पर तैरते हैं हजारों हज़ार या मिलियन ट्रिलियन विषाणु
घाव को चाटने में बहुत जोखिम है ,भाई
आओ दर्द से मुंह मोड़कर
पूरी बेशर्मी के साथ जुबान चलायें
इतिहास तटस्थ रहने वालों का जब गुनाह लिखेगा
यकीन करो ,तब उसके फुटनोट्स में
बड़बोलों की जयकार जरूर दर्ज रहेगी,
बोलना बड़ी बात है
हर जरूरी सवाल को घसीट कर
कविता के अंधकूप में उतर जाना
उससे भी अधिक आवश्यक है
जैसे आदमखोर घसीट ले जाते हैं
तड़पते हुए शिकार का गला दबाकर
किसी झाड़ी या दीवार या फिर
मंच के पीछे बने ग्रीन रूम में.
घाव चाटने से दुरुस्त नहीं होते
उनकी बड़े जतन से तुरपाई करनी पड़ती है
किसी रफूगर की चतुराई से
पूरना पड़ता है
रेशा रेशा कर हर किस्म की क्षुद्रता को
खून की सामन्ती शिनाख्त होने तक
किसी टीस का कोई मतलब नहीं होता.
जिनकी जुबान लम्बी है ,लचीली है
सधी हुई है ,पलट जाने में निष्णात है
कृत्रिम आग में तपाकर पैनाई हुई है
यह कविता उनके लिए नहीं है ,भाई
जाओ जाओ ,अपना काम करो
छोटे बच्चे ताली और
बड़े लोग मजे से बगले बजाएं.

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मोची राम

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