बुधवार, 13 दिसंबर 2017

चश्मा ,चाभी ,पेन और मेरा वजूद


मैंने अपने चश्मे को डोरी से बांध
लटका लिया है गले में
जैसे आदमखोर कबीले के सरदार
आखेट किये नरमुंड लटकाते होंगे
चश्मा जिसे मैं प्यार से ऐनक कहता हूँ
मेरे बचे रहने की रही सही फर्जी उम्मीद भर है
जरूरी चीजों को करीब बनाये रखने का
यही एकमात्र आदिम तरीका है
चश्मा तो बंध गया
अब बंद कमरे की इकलौती चाभी
जेब में किसी हठीली चिड़िया सी फुदकती है
दरवाजे पर जड़े जंग खाए ताले की ओर
कदम बढ़ाता हूँ तो वह दुबक जाती है
जेब के किसी अबूझे अंधकूप में
तब ताला मेरी हताशा को मुंह चिढाता है
चाभी मेरी हडबडी से निकल
ठन्न से आ गिरती है धरती पर.
पहले यही हाल पेन का था
वह तो जादूगर था ,बड़ा छलिया
वह तब कभी न मिला जब उसकी जरूरत पड़ी
वह कान की मुंडेर पर बैठा रहता
मैं लिखने लायक शब्द स्मृति में धकेल
जब झुंझलाहट में सिर झुकाता तो मिल जाता.
चश्मा चाभी और पेन को सम्भालने में
वक्त मंथर गति से गुजरता जाता है
कूटशब्दों से अंटी बायोमेट्रिक शिनाख्त के आगे
मेरा वजूद दो कौड़ी का है
स्मृति में लगी खूंटियों पर
टंगे हैं हाईटेक डरावने बिजूका
उनके समीप जाने से जी घबराता है.

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मोची राम

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