शुक्रवार, 29 जून 2018

मोहनजोदड़ो



चार  या पांच  हज़ार सहस्र वर्ष पूर्व
महान सभ्यता की दहलीज पर टहलते थे
करीब चालीस हज़ार लोगों के सनातन  सपने
जहाँ अब मोहनजोदड़ो है -मुर्दों का टीला
जीवाश्म भंगुर इतिहास के पुख्ता गवाह होते हैं.

वहाँ काला पड़ गया गेंहू है तो
भूख और तृप्ति भी होगी
कहीं गोपन स्थानों पर
या फिर शायद खुल्लम खुल्ला होता होगा
रोटी का खेल भी
सभ्यता थी तो यह सब हुआ ही होगा.

वहाँ मिले तांबे और काँसे के बर्तन,
मुहरें, चौपड़ की गोटियाँ,माप-तोल के पत्थर,
मिट्टी की बैलगाड़ी,
दो पाटन की चक्की, कंघी,
मिट्टी के कंगन और पत्थर के औजार
और कुछ भुरभुराए कंकाल
जीवन था तो यह तो  होगा ही.

मोहनजोदड़ो में नहीं मिला
किसी तितली के रंगीन परों का सुराग
पंख तौलते पक्षी की उड़ान का साक्ष्य
फूलों में बसी सुगंध का कोई सुबूत
न ताबूत में सलीके से रखी
किसी तूतनखामन की बेशकीमती देह
अलबत्ता वहाँ गुमशुदा आज के सिलसिले जरूर मिले.

वहां सपने बुनने वाला न कोई करघा मिला
न कुम्हार का चाक
वक्त की रफ़्तार पर ठहरा हुआ कोई राग
किसी कलाकार के रंगों की पिटारी
मिला ताम्बे का वो आईना
जिस पर कोई अक्स कभी ठहरा ही नहीं.

मोहनजोदड़ो में रीते हुए जलाशय मिले
नीचे की  ओर उतरती सीढियां मिली
बोलता बतियाता बहता पानी न मिला
अलबत्ता कहते हैं
वहाँ समय की सघन गुफाओं में से
जवान मादाओं के खिलखिलाने की आवाज़ आती है.

वहां रखे इतिहास के पन्ने
जब तब उलटते हैं
तब हिलती हैं चालीस हजार गर्दनें
हजारों साल बाद भी कोई नहीं जानता
इनकी देह और दैहिक कामनाओं का क्या हुआ  
मोहनजोदड़ो में बहती हैं धूलभरी गर्म हवाएं
अबूझ स्वरलिपि कोई कोई गवैया अनवरत गाता हैं .



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मोची राम

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