गुरुवार, 27 अगस्त 2020

एक निठल्ली दोपहर में लिखा कविता जैसा कुछ


कविता इसलिए भा गयी

इसमें विराम अर्धविराम या

ऐसे ही किसी अंडबंड चिन्ह को लगाने की

कोई बाध्यता न थी

शब्दों की चंट गिलहरियों को आज़ादी

वे किसी भी भाव को कुतरते

उम्मीद भरी मनचाही फुनगी तक जा

देर तक उस पर ठहरी रहे

 

बंध कर रहना कभी हो न सका

पंख कतर दे या उन्हें बांध दे या  

बड़े हवादार पिंजरे में रख छोड़े

उड़ना सम्भव न हुआ तब भी

पंख फडफडाना कभी न रुका

ज़िन्दगी भर जो किया

हमेशा अशर्त आवेग में किया

 

प्यार जैसे लफ्ज़ को लेकर

मन सदा सशंकित रहा

इसका वजूद ऐसा जैसे

अदृश्य परवरदिगार की उपस्थिति का विभ्रम

जैसे दूरस्थ इलाके से उठती

सामूहिक विलाप की लयबद्ध आवाजें

जैसे सदियों से उदास लड़की का

गहरी नींद में अचानक मुस्करा उठना

 

कभी कभी लगता है

मेरे पास से होकर कोई हमशक्ल गुजर गया

किसी ने मुझे बहुत धीरे से छुआ

किसी ने लगभग नि:शब्द पूछ लिया

बताओ , इस बार सफर कैसा रहा हमसफ़र

अबकी बार हर साँस के साथ

ख़ुद की शिनाख्त में कितनी एहतियात बरती.

 

अब जबकि दिन ढलने को हुआ

मन चाहता है कि ख़ामोशी टंकी चादर पर

पैरों को पसार कोलाहलपूर्ण सपने देखते

जी ली जाये बड़ी तसल्ली के साथ

एक हैरतअंगेज गहरी नींद

जिसके टूट जाने का कोई खतरा न हो.

 

 

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मोची राम

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