शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

माँ को याद करते हुए ..................


उस रात जब अँधेरा बहुत घना था
मौसम ज़रा गुनगुना  
माँ ने अपने सर्द हाथों में थाम
मेरे हाथ को कहा  
अरे तू तो तप रहा है भट्टी सा
उसके यह लफ्ज़ मेरे कान तक पहुंचे
और बिखर गये आँखों से
पिघलते आइसक्यूब की तरह पानी बन कर.

उस रात पहली बार उसने कहा
सरका दो खिडकियों पर लगे मोटे परदे
मैं देखना चाहती हूँ कालिमा में भी 
बगीचे में खिले वासंती फूलों की आभा
आसमान में तिरते खूबसूरत पंछी
और परस्पर उड़ान की होड़ में लगी
बहुरंगी पतंगों का तिलिस्म.

उस रात उसके कहते ही
खिडकियों के पट चौपट खुल गये
रोशनदान के लाल पीले नीले कांच से छनकर
फुदकने लगा चांदनी  का रूपहला छौना
उसकी चारपाई पर बिछी चादर की सिलवटों पर
पूरा कमरा भर गया मौसमी फलों की सुवास से.

उस रात उसने कहा
जा जल्दी ले आ थोड़े से लौकाट मेरे लिए
बड़ी भूख लगी है मुझे
तेरे पिता होते  ले आते
लाहौर वाले क़ादिर के बाग़  से
रुमाल में बाँध रस से चुह्चुहाते फल.

उस रात माँ देखती रही सघन अँधेरे में
रोशन उम्मीदों के सपने खुली आँखों   
बाट जोहती मेरे पिता की
प्रेमपगे उलहानों के  साथ  
पूछती रही मुझसे निरंतर
क्या रेडियो पर आनी बंद हुई युद्ध की खबरें
क्या आज भी डाकिया नहीं लाया
उनकी कोई खोज खबर.


उस रात वह अचानक चली गयी
मेरे हाथों में सौंप
अपनी यादों और इंतजार की अकूत विरासत
अँधेरे और रोशनी के आरपार
मैं उसके ठंडे हाथों को
अपनी रूह में सम्भाले रोज पूछता हूँ.  
क़ादिर के बाग़ का पता.






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मोची राम

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