मंगलवार, 21 मार्च 2017

निशब्दता की मुनादी


थक गया हूँ शायद
सरकंडे की कुर्सी पर बैठा अकेला
अब तो कोई यह भी नहीं कहता
परे सरको हमें भी दो  
टिकने लायक जगह
रिक्तता ऐसी जैसे निशब्द बियाबान.

लिखने के लिए स्निग्ध कागज है
बेहतरीन कलम है
बिना स्याही में डुबाये
फरफर हवा की तरह चलने वाली
हवा है ही नहीं जो उड़ा ले जाए पन्ने
पर अक्षर हैं कि शब्द में बदलते ही नहीं.

बंद खिडकियों के पल्ले निस्तब्ध हैं
गमले में खिले निर्गंध फूलों तक आ पहुंची
तितलियाँ हैरान हैं
रंग हैं पर उड़ान का कौतुहल नदारद है
पौधों की परछाईंयों में
सुकून का अतापता नहीं.

रोशनदान में ठुंके हैं
दफ्ती के अवरोधक
रौशनी की लकीरें
खड़ी हैं घर के बाहर
उदासी का पुनर्पाठ करती
पता नहीं कबसे हांफती हुईं सी.

यह दरअसल थकन का नहीं
हवा पानी गंध और तितलियों के लिए
जिंदा रहते हुए भी
वक्त से पहले मर जाने की मुनादी है
चरमरा रही है कुर्सी
यकीनन बिखर जायेगी तिनका तिनका होकर.



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मोची राम

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