शनिवार, 18 जनवरी 2020

मेरे होने और न होने के बीच



मैं जा रहा अकेला कुछ बुदबुदाता हुआ
न ..न .. कोई दुआ नहीं
न किसी फर्जी उम्मीद की मुनादी  
उसमें जो था
समझ से ज़रा फासले पर रहा  
दिल को बहलाने को तब मैंने शायद
अजब भाषाई ढोंग रच लिया.

मेरे पास अरसे से
कहने –सुनने को कुछ खास  नहीं
बासी शब्दों से कोई क्या रचे
उनसे रची इबारत में से तो
आती है वनैली गंध
अभिव्यक्ति के सिर पर
उग आये हैं नुकीले सींग.

हमारे समय के कवि के पास
कविताओं के बजाये  जटिल पहेलियां  हैं
जग को भरमाने के लिए
कृत्रिम शब्दावली
वे कुछ भी लिखने से पहले
कलम की आड़ में मुंह छुपा लेते हैं.
उनकी बेहयाई कालजयी है.

लिखना पढ़ना उनके लिए ऐसा
खुद को जिंदा बताने के लिए
गहरी नींद में पलक झपकाना
बताते चलना देश दुनिया को
हम इस ठहरे समय में निठल्ले नहीं 
कुछ न कुछ कर तो रहे यकीनन.

सब ठीक है ,ठीक-ठाक है लगभग
इसी होने ,न होने के बीच
सिर्फ निरर्थक बहस मुबाहिसे हैं
चंद फैशनेबल जुमले
कुछ खोखले लफ्ज़
चतुदिक वैचारिक घपले हैं.











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मोची राम

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