मेरी आँखों के ककून में
सपने कभी नहीं टिकते
उनके पंख निकल आते हैं
तो तितली बन उड़ जाते हैं
सच तो यह है
मेरी आँखों को सपने सहेजने का
सलीका कभी नहीं आया .
बरसों बरस की डेली पैसेंजरी के दौरान रची गई अनगढ़ कविताएँ . ये कवितायें कम मन में दर्ज हो गई इबारत अधिक हैं . जैसे कोई बिगड़ैल बच्चा दीवार पर कुछ भी लिख डाले .
महामारी के भीषण दिनों में उन लोगों ने बातून नौनिहालों को जबरन सिखवाया सिर्फ इशारों ही इशारों में अपनी जरूरत भर की बात कह लेना किसी मूक बघिर...
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