बरसों बरस की डेली पैसेंजरी के दौरान रची गई अनगढ़ कविताएँ . ये कवितायें कम मन में दर्ज हो गई इबारत अधिक हैं . जैसे कोई बिगड़ैल बच्चा दीवार पर कुछ भी लिख डाले .
शुक्रवार, 8 मार्च 2013
मेरे सपने
मेरी आँखों के ककून में सपने कभी नहीं टिकते उनके पंख निकल आते हैं तो तितली बन उड़ जाते हैं सच तो यह है मेरी आँखों को सपने सहेजने का सलीका कभी नहीं आया .
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