बुधवार, 29 अगस्त 2018

बीतती हुई जिन्दगी



बीतते जाते हैं दिन बड़े सलीके से
नींद को टेरते गुजरती है
युगों लम्बी तमाम रातें
आदिम घड़ियां बेवजह टिकटकाती हैं
समय का पेंडुलम डोलता है.
लगभग बेवजह.

कहीं पहुँचने की जल्दबाजी नहीं
न किसी को आँख भर देख लेने का दीवानापन  
सब कुछ चलता तयशुदा तरीके से
उबासी भी ज़रा एहतियात से लेते
ताज़ा जिल्दबंधी किताब की तरह
यादों के सफ़े दबे हैं वजनी वक्त के नीचे.

पलक झपकते सपने आते –जाते
मन के भीतर कोई रंग न उतरा
किसी को बेसाख्ता पुकारते हुए जी कतरा जाए
अतीत के अरण्य में
भूली बिसरी यादों के सूखे पत्ते तक न खडखडाये
आदमी रोबोट हुआ मानो.

बोसीदा दीवार पर टंगा कैलेंडर थरथराता  है
कुछ है जो तारीख की मुट्ठी से
फ़िसल रहा है आहिस्ता आहिस्ता
उम्र की रेत चुपचाप उड़ती है
किसी बिंदास हसीना के दुपट्टे की तरह.











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मोची राम

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