शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

उस दिन ......

...
उस दिन मैंने दवा रखने वाली
छोटी छोटी रंगीन डिब्बियों में
एक एक कर सुबह दोपहर शाम के हिसाब से
सोमवार से लेकर रविवार तक
जिंदा बने रहने की हिकमत को करीने से सजाया
फिर छत की ओर तेजी से घूमते पंखे की ओर देखा
सोचा चलो जिन्दगी में रची बसी अराजकता ज़रा कम हुई.

बहुत सोचने के बाद याद आया
जिन्हें मैं डिब्बियों के नाम से याद कर रहा
यह तो ऑर्गेनाइजर है
वक्त कितना बदल गया कि
पापा ,हैप्पी बर्थडे ...कहता बेटा
उपहार में ग्लूकोमीटर या ऐसा ही कोई सामान देता 
एक न एक दिन लगभग तस्दीक कर देता है कि
दवाएं रासयनिक दया हैं
किसी की दुआओं से अधिक विश्वसनीय.

उस दिन
टाइम मशीन में बैठ कर
बीते हुए समय में वापस लौट जाने की गाथा का  
दुखांत पटाक्षेप हुआ मानो
विज्ञानं ने अपनी तार्किकता से
छोटी छोटी भावुक आत्मीयता से भरी
मरियल आस छीन ही ली  
इसके बाद बताया कि
जीवन के निविड़ अंधकार में
किसी किस्म की उम्मीद बाँधने से नहीं
बिना सीली हुई माचिस में रखी
शुष्क तीली की सम्यक रगड़ से काम चलता है.

उस दिन के बाद
दवाओं को खाने का वक्त सदा याद रहा
पर  मैं भुलाने लगा 
स्मृति के गोपन कोनों में सहेज कर रखे
दैहिक उन्माद के प्रेमिल लम्हे 
अपनत्व भरे कालातीत पल
और उत्तेजनापूर्ण यथार्थ का गल्प.

उस दिन यकायक जाने क्या हुआ
मेरे भीतर का कापुरुष विजयी भाव के साथ
मेरी लापरवाह निजता को .
बेदर्दी से रौंदता हुआ
चला गया समय के परले पार.









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मोची राम

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