शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

आक की हरी पत्ती

वह अपने दुखते हुए घुटने पर
हल्दी मिले गर्म तेल का फाहा रखती है
फिर आहिस्ता से आक*  के हरे नरम पत्ते को
इस तरह से उस पर टिकाती है
जैसे स्वप्निल यात्रा पर निकलने से पहले
प्रार्थना के लिए उपयुक्त शब्दावली ढूंढती हो.

वह सघन अँधेरे में छिपी
रोशनी की परतों के बीच
यादों की सीढियों पर तेज कदमों से चढ़ती है
छत की मुडेर पर दोनों बाँहों को फैला
अपने पंखों की ताकत परखती
खुले आसमान में उड़ जाना चाहती है.

वह घनीभूत दर्द में से चुनती है
यहाँ वहां बिखरे नींद के सफेद फूल
सुकून के तकिये पर सिर रख
इस तरह शरमा जाती  है
जैसे कोई प्यार के प्रगाढ़ पलों में
किसी के सीने में खुद को छुपा ले.

तेल से भीगे फाहे से दर्द हर रात
धीरे धीरे बेआवाज़ रिसता है
देह  निस्तब्ध अरण्य में भटकती है
समय की नदी में वह चप्पू चलाती
रोज बटोर लाती है आक  की ताज़ा  पत्तियां.  

*आक औषधीय पादप है. इसको मदार 'अर्क' और अकौआ भी कहते हैं। इसका वृक्ष छोटा और छत्तादार होता है.

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मोची राम

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