शनिवार, 17 अगस्त 2013

कभी कभी : जो सूझा लिख डाला

मन में सघन उदासी थी
तब मैंने कविता लिखी
कभी कभी कविता
आँसू पोंछने का रुमाल बन जाती है .

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मन के अरण्य में
कितना गहन सन्नाटा है
कभी कभी कुछ झींगुर ही
आवाज़ उठाते रह जाते हैं .
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सुबह जब आँख खुली
दिन चढ़ आया था
कभी कभी अँधेरे को भी
घर जाने की जल्दी होती है .
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उम्र के बहाव में आदमी
कितना अकेला पड़ जाता है
कभी कभी बिना लड़े ही
वह यूं ही हार जाता है .
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सुबह अभी आई ही है
रात का इंतज़ार शुरू हो गया
कभी कभी अँधेरे के लिए
लोग पलकें बिछा देते हैं 
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बच्चा अपनी नींद में
हौले से मुस्कराता है
कभी कभी मुस्तकबिल *
कितना खुशगवार लगता है .

*भविष्य

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देखते ही देखते
उन्होंने मार डाले तमाम मेमने
कभी कभी बकरियां
बस मिमयाती रह जाती हैं .
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वह गहरी नींद में है
होठों पर तिर आई है कडवाहट
कभी कभी तल्ख लमहे
कहाँ तक चले आते हैं .

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 जश्न का मौका है
प्लेटों में सजे हैं तमाम मुर्गे
कभी कभी बांग के इंतज़ार में
सुबह आने से कतराती है .

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 वह पूछ रहे हैं जनता से
क्या मैं काक्रोच लगता हूँ ?
कभी कभी कुछ सवालों के जवाब
तबाही के मलबे से निकलते हैं .


 
 

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मोची राम

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