बरसों बरस की डेली पैसेंजरी के दौरान रची गई अनगढ़ कविताएँ . ये कवितायें कम मन में दर्ज हो गई इबारत अधिक हैं . जैसे कोई बिगड़ैल बच्चा दीवार पर कुछ भी लिख डाले .
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जब हम लौटेंगे
एक दिन हमें लौटना होगा जैसे आकाश छूती लहरों के बीच से लौट आते हैं मछुआरे अपनी जर्जर नाव और पकड़ी हुई मछलियों के साथ .
हमें लौटना होगा जैसे लौट आते हैं योद्धा लहूलुहान यह बता पाने में असमर्थ कि वहां कौन जीता किसकी हार हुई .
हमें लौटना होगा जैसे बहेलिये लौट आते हैं अरण्यों से रीते हाथ यह बताने में लजाते हुए कि अब वहां अदृश्य परिंदे रहते हैं जो निकल जाते हैं जाल के आरपार .
हमें लौटना होगा जैसे दिन भर चमकने वाला सूरज चला जाता है अस्ताचल में अँधेरे को बिना बताये निशब्द .
हमें लौटना होगा जैसे एक थकी हुई लड़की दिन भर यहाँ वहां भटकने के बाद कोई निरर्थक गीत गुनगुनाती चली आती है वीराने घर में .
हमें लौटना होगा अपने अपने प्रस्थान बिंदुओं की ओर यह सोचते हुए आगामी यात्रा सुखद होगी .
हमें लौटना होगा ठीक वैसे ही जैसे हमारे पुरखे लौटा करते थे शमशान से किसी आत्मीयजन को जला कर .
हमें लौटना होगा एक दिन खुद को इतिहास समझने की ग़लतफ़हमी के साथ जबकि होगा यह हम फिर कभी नहीं लौटेंगे .
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