शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

चाहत


हमें अच्छी लगती   है
बालकनी की रेलिंग पर
फुदक फुदक कर चहकती चिड़िया  
लेकिन तभी तक
जब तक वह अपने बसेरे  की जिद में  
घर के किसी रौशनदान पर
बरबस अपना हक न जताने लगे  .   .

हमें अच्छी लगती है
घर आंगन में पसरी हुई
तेजतर्रार सुनहरी  धूप
लेकिन तभी तक
जब तक हम देख पायें 
एयरकंडीशन कमरे की खिड़की से
सड़क पर चलते पसीने में लथपथ राहगीरों को .

हमें अच्छी लगती है
सुंदरता से भरपूर
धरती की हर जवान मादा   
लेकिन तभी तक
जब तक वह न टांक  दे  
हमारे नर होने पर सवालिया निशान .   .

हमें अच्छा  लगता है
सन्नाटे से भरापूर
वाचाल अँधेरा
लेकिन तभी तक
जब तक हमारे पास होती  है
उसे बनाये रखने की पुख्ता वजह .   .

हमें अच्छा लगता है
रंग बिरंगी मछलियों का
पानी में बेख़ौफ़ खिलंदड़ी करना
लेकिन तभी तक
जब तक उनकी देह गंध
हमारे भीतर की भूख  न जगा दे  .

हमारे भीतर चाहतों का अजायबघर है                
लेकिन उसमें कुछ भी ऐसी नहीं
जिसके वहां होने का कोई  कारण  न हो
ध्यान से देखोगे तो दिखेगा
उन सबके साथ नत्थी हैं  
हमारी क्रूरताओं के पारदर्शी दस्तावेज़. .

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

मोची राम

छुट्टियों में घर आए बेटे

बेटे छुट्टियाँ पर घर आ रहे हैं ठण्ड उतरा रही है माहौल में   धीरे-धीरे खबर है , अभयारण्य में शुरू हो चली है लाल गर्दन वाले बगुलों की आम...