शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

मैं जरा जल्दी में हूँ

अब मैं जरा जल्दी में हूँ
मेरे पास इतनी भी फुरसत नहीं
कि बैठ कर किसी के पास
अपनी ख़ामोशी कह सकूँ
उसकी तन्हाई सुन सकूं.

मैं चींटियों की तरह
सीधी लकीर में चलता हुआ
अब उस मुकाम पर हूँ
जहाँ आसमान से टपकती
पानी की बूंदों से
अपने-अपने कागजी लिबास बचाने की 
मारक होड़ मची है.

अब मैं जरा जल्दी में हूँ
मेरे पास न जीतने को कुछ है
न गंवाने लायक कुछ
फिर भी निरंतर भागते जाना है
क्या पता कहीं बंटता हुआ मिल जाये
कोई ऐसा अनचीन्हा सुख
जिसके लिए कोई प्रतिस्पर्धा
कोई कतार न हो.

अब मैं जरा जल्दी में हूँ
मेरे पास अभी एकाध सपना बचा है
कुछेक सांसें हैं
उम्मीद के चंद कतरे हैं
यादों का कबाडखाना
गुमशुदा कल 
और लावारिस यकीन हैं
क्या पता कहीं मिल जाये
उम्मीदों का जादुई चिराग
बिन तेल बिन बाती जलता हुआ.

अब मैं जरा जल्दी में हूँ
मेरे पास आस है
जो कभी नहीं हुआ अब हो जाये
थोड़ा सा दुलार कहीं से मिल जाये
वो न मिले तो न सही
ऐसी कटार मिल जाये
जिससे कट जाएँ एक ही वार में
मेरे तमाम निरर्थक खौफ.
कायरता से लबरेज़ बहानेबाजी के कवच.
  
अब मैं जरा जल्दी में हूँ
धैर्य की सारी सीमा रेखाओं को
लाँघ कर चला आया हूँ
किसी नाटक का मूक दर्शक
मुझे नहीं बनना है
अपना नियामक खुद बनना है.

बहुत जी लिया इतिहास के ग्रंथों के
मानचित्रों के जरिये 
अब और नहीं रेंगना
अतीत की कंदराओं में
आधारहीन अनुमानों के सहारे.

अब मैं जरा जल्दी में हूँ
ऊबनेउंघनेअघाने  का
समय कब का रीत चुका है.
बिना कुछ किये मरने से बेहतर है

जल्दबाजी में कुछ करते हुए मर जाना .

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मोची राम

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